SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आगम-परम्परा एवं निगम-परम्परा में अन्तःसम्बन्ध 475 को महत्त्व दिया । ऐसा प्रतीत होता है कि गुण एवं कर्म के आधार पर जो वर्ण-व्यवस्था स्थापित हुई थी, वह तीर्थङ्कर महावीर के काल में आते-आते जाति-व्यवस्था के रूप में परिवर्तित हो गई थी। उत्तराध्ययनसूत्र में 'जाइविसेसे' (जाति विशेष) शब्द इस तथ्य को इंगित करता है सक्खं खुदीसइ तवो विसेसो। न दीसइ जाइविसेस कोई ।। तप विशेष का प्रभाव साक्षात् दिखाई पड़ता है, जाति विशेष का नहीं । जाति से शूद्र हरिकेशी चाण्डाल ने जैन श्रमण प्रव्रज्या अंगीकार की थी। भिक्षा के लिए वह यज्ञस्थल पर गया तो ब्राह्मणों द्वारा भिक्षा देने का निषेध किया गया। यही नहीं, मुनि को लाठी और कोडों से पीटकर भगाया गया, किन्तु मुनि के तप का अद्भुत प्रभाव परिलक्षित हुआ और अन्त में सभी ब्राह्मण उस मुनि के समक्ष नतमस्तक हो गए। 'ब्राह्मण' का स्वरूप क्या हो, इस पर उत्तराध्ययनसूत्र का 25 वां अध्ययन प्रकाश डालता है। वहाँ 11 गाथाओं में ब्राह्मण का स्वरूप प्रतिपादित किया गया है, जो श्रमण के स्वरूप के तुल्य ही प्रतीत होता है, यथा- “ जो किसी वस्तु के प्राप्त होने पर न प्रसन्न होते हैं और न उसके चले जाने पर शोक करते हैं, जो आर्यवचन में रमण करते हैं, जो भय, राग-द्वेष से रहित हैं वे ब्राह्मण हैं । जो तपस्वी, दान्त और कृशतनु हैं, जो सुव्रत हैं तथा शान्त-स्वभावी हैं उनको हम ब्राह्मण कहते हैं । जो त्रस और स्थावर प्राणियों की मन, वचन एवं काया से हिंसा नहीं करता, जो क्रोध, हास्य, भय और लोभ से मिथ्यावचन नहीं कहता, उस सत्यवचन के वक्ता को हम ब्राह्मण कहते हैं । जो अदत्तादान का त्यागी है, दिव्य, मानुष और पशु के साथ मैथुन सेवन नहीं करता वह ब्राह्मण है । जैसे जल में उत्पन्न कमल जल के मल से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार जो कामों से अलिप्त है उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । जो अलोलुप एवं मुधाजीवी है, जिसने घर कांचन का त्याग कर दिया है तथा जो गृहीजनों में आसक्त नहीं है वह ब्राह्मण है। 128 ब्राह्मण का जो लक्षण उत्तराध्ययनसूत्र में उपलब्ध है वैसा बौद्ध ग्रन्थ धम्मपद में भी मिलता है, किन्तु किसी भी वैदिक ग्रन्थ में नहीं मिलता। मनुस्मृति आदि ग्रन्थों
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy