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________________ जैन आगम-परम्परा एवं निगम-परम्परा में अन्तःसम्बन्ध 473 प्रमुख है" अग्गिहुत्तमुहा वेया, जन्नट्ठी वेयसां मुहं । नक्खत्ताणं मुहं चंदो, धम्माणं कासवो मुहं ॥" उत्तराध्ययनसूत्र के ही 12 वें अध्ययन में श्रेष्ठयज्ञ का लक्षण आध्यात्मिक रूप में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है छज्जीवकाए असमारभंता, मोसं अदत्तं च असेवमाणा। परिग्गहं इथिओ माणमायं, एयं परिन्नाय चरति दंता ।। सुसंवुडो पंचहिं संवरेहिं, इह जीवियं अणवकंखमाणो। वोसट्ठकाओ सुइचत्तदेहो, महाजयं जयइ जन्नसिठं ।” षड्जीवनिकाय (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय) की हिंसा से विरत, मृषा एवं चौर्य का सेवन नहीं करने वाला तथा परिग्रह, स्त्री और मान-माया को भली भांति जानकर इनका परित्याग कर विचरण करता है तथा जो पाँच (अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह) संवरों से सुसंवृत है, इस जन्म में जीवन की आकांक्षा नहीं करता और शरीर के प्रति आसक्ति का त्याग करता है, पवित्र है तथा देहभाव का त्याग कर चुका है, ऐसा साधु ही कर्म शत्रुओं पर विजय पाने वाला श्रेष्ठ यज्ञ करता है। यज्ञ का स्वरूप वैदिक परम्परा में भिन्न है, उसको करने की विधि भी भिन्न होती है, किन्तु जैन परम्परा के अनुसार श्रेष्ठ यज्ञ क्या हो सकता है उसे 'जन्नसिटुं' शब्द से अभिव्यक्त किया गया है । श्रेष्ठ यज्ञ का यह स्वरूप जैन आचार मीमांसा की टकसाल में घड़ा गया है। जैनागम बाह्य शुद्धि एवं यज्ञ की अपेक्षा भावशुद्धि एवं सदाचरण को महत्त्व देते हैं तथा कर्म-सिद्धान्त को मुख्यता देते हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में सदाचरण एवं कर्म-सिद्धान्त पर बल देते हुए कहा गया है पसुबंधा सव्ववेया, जठं च पावकम्मुणा। न तं तायंति दुस्सीलं, कम्माणि बलवंति हि ।" पशुवध विधि के निरूपक वेद तथा पापकर्म से कृत यज्ञ दुश्शील व्यक्ति की रक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि कर्म बलवान् है । कर्म के अनुसार फल प्राप्ति होती है
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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