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________________ जैन-बौद्ध वाङ्मय में वर्णाश्रमधर्म और संस्कार 459 धम्मपद के ब्राह्मणवग्ग में ब्राह्मण के अनेक लक्षण दिए गए हैं, जो उसको उन्नत शीलवान् निरूपित करते हैं, उदाहरणार्थ यस्स कायेन वाचा य, मनसा नत्थि दुक्कतं । संवतुं तीहि ठानेहि, तमहं ब्रूमि माहणं ॥ न जटाहि न गोत्तेहि,न जच्चा होति ब्राह्मणो। यम्हि सच्चंचधम्मो च, सोसुचीसोच ब्राह्मणो ।। आसा यस्स न विज्जति, अस्मिं लोके परम्हि च । निरासयं विसंयुतं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।" शरीर, वाणी एवं मन से जो दृष्कृत नहीं करता तथा शरीरादि तीनों से जो संवरयुक्त है वह ब्राह्मण है। न जटाओं से, न गोत्र से और न जाति से कोई ब्राह्मण होता है, अपितु जिसमें सत्य और धर्म है वही शुचि है और वही ब्राह्मण है । इस लोक एवं परलोक के विषय में जिसकी आशाएँ (तृष्णा) नहीं रह गई हैं, जो आशारहित तथा आसक्तिरहित है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ। सुत्तनिपात में प्राचीन ब्राह्मणों की विशेषता बताते हुए बुद्ध कहते हैं कि वे ब्रह्मचर्य, शील, ऋजुता, मृदुता, तप, सज्जनता, अहिंसा और क्षमा के प्रशसंक थे। ब्राह्मणों के पास न पशु होते थे, न हिरण्य तथा धान्य । स्वाध्याय करना ही उनका धन-धान्य था। उन्होंने श्रेष्ठ विधि से ब्रह्म की रक्षा की। बुद्ध की दृष्टि में जन्म (जाति) का नहीं, कर्म का महत्त्व है, वे कहते हैं कम्मना वत्तती लोको, कम्मना वत्तती पजा। कम्मनिबन्धना सत्ता, रथस्सणीव यायती ॥ -सुत्तनिपात, वासेट्ठसुत्त, 61 लोक कर्म से चल रहा है, प्रजा कर्म से चल रही है, रथ के चक्के की आणी की भाँति प्राणी कर्म से बंधे हैं। प्रतीत्यसमुत्पाददर्शी और कर्मविपाक कोविद पण्डितजन कर्म को यथार्थ जानते हैं। ___दीघनिकाय के अग्गज्ञ सुत्त में क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र इन चार वर्णों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि कोई क्षत्रिय भी प्राणातिपाती अर्थात् हिंसक होता है, अदत्तादानी होता है, व्यभिचार करता है, झूठ बोलता है, चुगली करता है, कठोर
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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