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________________ जैन और बौद्ध धर्म-दर्शन : एक तुलनात्मक दृष्टि 443 ने भगवतीसूत्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के आधार पर उत्तर देते हुए कहा है कि द्रव्य की अपेक्षा से लोक एक है, अतः सान्त है । क्षेत्र की अपेक्षा भी लोक सान्त है, किन्तु काल एवं भाव की अपेक्षा से लोक अनन्त है। काल का कोई अन्त नहीं है। अतः काल की अपेक्षा लोक अनन्त है । भाव की अपेक्षा से भी लोक अनन्त है, क्योंकि धर्मास्तिकायादि षड्द्रव्यात्मक लोक की पर्यायों का कभी अन्त आने वाला नहीं हैं। इन द्रव्यों का कभी भी पूर्णतः नाश नहीं होता । इसलिए लोक जैनदर्शन में अनादि-अनन्त है। जीव और शरीर एक है या भिन्न, इस प्रश्न का समाधान भी जैनदर्शन में उपलब्ध होता है। जीव ज्ञानगुण एवं दर्शनगुण से सम्पन्न होता है, जबकि शरीर औदारिक आदि पुद्गलों से निर्मित होता है। शरीर में चेतना की प्रतीति जीव के कारण होती है। जब तक शरीर के साथ जीव का संयोग रहता है तब तक शरीर में चेतना बनी रहती है। किन्तु शरीर से जीव के पृथक् होते ही शरीर जड़ हो जाता है। इसलिए जीव और शरीर परमार्थतः पृथक् हैं, किन्तु जीवन जीते समय उनका संयोग बना रहता है। भगवतीसूत्र में आत्मा एवं शरीर के भेदाभेद की चर्चा उठायी गई है, जिसका अभिप्राय है कि जब शरीर को आत्मा से पृथक् माना जाता है, तब वह रूपी व अचेतन है तथा जब शरीर को आत्मा से अभिन्न माना जाता है तब शरीर रूपी एवं सचेतन है।" पंडित दलसुख मालवणिया इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण देते हुए कहते हैं - जीव और शरीर का भेद इसलिए मानना चाहिए कि शरीर का नाश हो जाने पर भी आत्मा दूसरे जन्म में मौजूद रहती है, या सिद्धावस्था में अशरीरी आत्मा भी होती है। अभेद इसलिए मानना चाहिए कि संसारावस्था में शरीर और आत्मा का क्षीर-नीरवत् या अग्नि-लोहपिंडवत् तादात्म्य होता है। इसलिए काया से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन होता है और कायिक कर्म का विपाक आत्मा में होता है। देह-त्याग के पश्चात् तथागत रहते हैं या नहीं, इस प्रश्न को जीव की नित्यता या अनित्यता के रूप में समझा जा सकता है। भगवतीसूत्र में इस प्रकार का प्रश्न उठाया है कि जीव शाश्वत है या अशाश्वत? इसका उत्तर देते हुए भगवान महावीर कहते हैं कि द्रव्य की अपेक्षा से जीव शाश्वत है तथा पर्याय की अपेक्षा से जीव अशाश्वत है। इसका तात्पर्य है कि मुक्त जीव भी
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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