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________________ 436 3. अदिन्नादाणाओ वेरमणं - अदत्तादान से विरमण - मैथुनसेवन से विरमण 4. मेहुणाओ वेरमणं 5. परिग्गहाओ वेरमणं परिग्रह से विरमण जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन • अचौर्य महाव्रत — - ब्रह्मचर्य महाव्रत - अपरिग्रह महाव्रत प्राणातिपात, मृषावाद आदि इन पाँचों का कृत, कारित एवं अनुमोदन के स्तर पर मन, वचन एवं काया से सर्वथा विरमण होना महाव्रत है तथा अंशतः विरमण होना अणुव्रत है ।" बौद्धधर्म में पंचशील के अन्तर्गत परिग्रहविरमण के स्थान पर सुरामेरय- मद्यादि के त्याग को स्थान दिया गया है । उन्होंने इन पाँचों का क्रम भिन्न रखा है, यथा - 1. प्राणातिपातविरमण 2. अदत्तादानविरमण 3. काममिथ्याचार (व्यभिचार) विरमण - यह मैथुनविरमण का पर्यायवाची है। 4. मृषावादविरमण 5. सुरामेरय-मद्यप्रमादस्थानविरमण । श्रामणेरविनय नामक खुद्दक पाठ में इन पंचशीलों को शिक्षापद के रूप में ग्रहण करने का उल्लेख हुआ है। यहाँ उल्लेखनीय है कि जैनधर्म में मांस-मदिरा के त्याग को श्रावक एवं साधु बनने की प्राथमिक आवश्यकता माना गया है। जैन आगमों एवं उत्तरवर्ती साहित्य में मांस एवं मदिरा के त्याग का अनेक स्थानों पर उल्लेख हुआ है । सप्त कुव्यसनों के अन्तर्गत भी जैनसाहित्य में मांस एवं मदिरा के त्याग पर बल दिया गया । यही नहीं, इनके व्यापार को भी कर्मादान का हेतु होने से त्याज्य बताया गया है । जैन दर्शन में परिग्रह-विरमण को महाव्रतों एवं अणुव्रतों में स्थान देकर आध्यात्मिक एवं सामाजिक क्रान्ति का शंखनाद किया गया है । पर-पदार्थों के प्रति आसक्तिरूप परिग्रह जब तक नहीं छूटता तब तक दुःख - मुक्ति संभव नहीं है । यही नहीं जब तक पदार्थ एवं व्यक्तियों के प्रति आसक्ति भाव है तब तक हिंसादि पापों से भी छुटकारा नहीं मिलता। इसलिए परिग्रह से विरति आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है तथा सामाजिक समरसता भी तभी सम्भव है जब बाह्य परिग्रह की लालसा नियंत्रित हो । परिग्रह की लालसा पर नियंत्रण होने पर बाह्य पदार्थों की उपलब्धता सबके लिए आसान हो सकती है । इसीलिए जैनधर्म में गृहस्थ के लिए भी परिग्रह का परिमाण निर्दिष्ट है । -
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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