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________________ वीतराग और स्थितप्रज्ञ : एक विश्लेषण 423 रूप में आसक्ति करने की गाथा दी गयी है, किन्तु इसी प्रकार शब्द, रस, गंध, स्पर्श एवं विचार (भाव) में तीव्र आसक्ति (राग) करने वाला भी अकाल ही विनाश को प्राप्त करता है एवं इनमें द्वेष करने वाला दुःखी होता है। काम-भोग किंपाक फल के समान मनोरम प्रतीत होते हैं, किन्तु वे अनर्थ को जन्म देने वाले होते हैं- खाणी अणत्थाणहुकाम-भोगा। काम-भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष के समान हैं, जो कामभोगों (विषयभोगों) की इच्छा करता है, वह न चाहने पर भी दुर्गति को प्राप्त करता है। वीतराग कामभोगों में सुख नहीं मानता। वह उनमें दुःख भी नहीं मानता। क्योंकि कामभोग अथवा विषयभोग की सामग्री न समता पैदा करती है और न विषमता पैदा करती है, अपितु उनके प्रति अथवा भोगसामग्री के प्रति रहा हुआ राग एवं द्वेष ही मोह के कारण विकृति (विषमता) पैदा करता है, यथा न कामभोगा समयं उर्वति,न यावि भोगा विगइं उर्वति। जे तप्पओसी य परिग्गही य,सो तेसु मोहाविगइंउवेई ।।-उत्तरा.32.101 न कामभोग समता पैदा करते हैं, न विकृति पैदा करते हैं, जो उनके प्रति (भोग सामग्री के प्रति) प्रद्वेष करता है एवं परिग्रह (राग, आसक्ति) करता है वह उनमें मोह के कारण विकृति प्राप्त करता है। इसी तथ्य को भिन्न प्रकार से कहा गया है - विरज्जमाणस्सयइंदियत्था, सद्दाइया तावइयप्पगारा। न तस्ससव्वे विमणुन्नयंवा,निव्वत्तयंतिअमणुन्नयंवा।।-उत्तरा. 32.106 इन्द्रियों के शब्दादि विषय, जितने भी हैं वे सब उस विरक्त (वीतराग) जीव के लिए मनोज्ञता एवं अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं कर सकते। रूपादि विषयों से विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है। वह संसार में रहता हुआ भी दुःख-परम्परा से उसी प्रकार लिप्त नहीं होता जैसे कमल-पत्र जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता। इस प्रकार जो इन्द्रिय एवं मन के विषय रागी मनुष्य के दुःख के कारण होते हैं वे वीतराग मनुष्य को कभी भी किंचित् भी दुःख उत्पन्न नहीं करते। दुःख कामभोग की सामग्री से नहीं होता, अपितु उनमें रही हुई गृद्धता (आसक्ति, राग) से होता है। वह दुःख चाहे लोक के किसी भी प्राणी को क्यों न हो, सारा दुःख कामभोगों अथवा विषय भोगों में रही हुई आसक्ति (राग) से उत्पन्न
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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