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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन किन्तु अस्तिकाय नहीं । इसी प्रकार अनन्त जीव अनन्त द्रव्य तो हैं, किन्तु सब मिलाकर एक जीवास्तिकाय हैं । अस्तिकाय और द्रव्य में यह सूक्ष्म भेद व्याख्याप्रज्ञप्ति में वर्णित है । काल द्रव्य तो है, किन्तु अस्तिकाय नहीं, क्योंकि उसका कोई स्वरूप नहीं बनता है। काल के प्रकार स्थानाङ्गसूत्र, षट्खण्डागम, नियमसार, तत्त्वार्थराजवार्तिक, गोम्मटसार आदि ग्रन्थों में काल के प्रकारों का निरूपण है । काल के परमार्थ एवं व्यवहार भेद प्रसिद्ध हैं। इन्हें निश्चय एवं व्यवहार भी कहा जाता है । काल के मुख्यतः तीन प्रकार हैं-अतीत, अनागत और वर्तमान ।' ये व्यवहारकाल के ही भेद हैं । नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव की अपेक्षा से काल चार प्रकार का है । गुणस्थिति, भवस्थिति, कर्मस्थिति, कायस्थिति, उपपाद और भावस्थिति की अपेक्षा से काल के छह प्रकार विशेषावश्यकभाष्य और लोकप्रकाश में निक्षेप की अपेक्षा से काल के 11 प्रकार निरूपित हैं," यथा-1. नामकाल, 2. स्थापनाकाल, 3. द्रव्यकाल, 4.अद्धाकाल, 5.यथायुष्ककाल, 6.उपक्रमकाल, 7.देशकाल 8. कालकाल, 9. प्रमाणकाल, 10. वर्णकाल और 11. भावकाल। किसी का 'काल' नाम रखना नामकाल है। किसी वस्तु अथवा व्यक्ति की प्रतिकृति, मूर्ति अथवा चित्र में काल का गुण-अवगुण रहित आरोपण करना स्थापना काल है । जैसे रेतघड़ी की रेत के एक खण्ड से दूसरे खण्ड में आने की अवधि में मुहूर्त या घण्टे की स्थापना करना स्थापना काल है। सचेतन और अचेतन द्रव्यों की स्थिति ही द्रव्यकाल है । यह सादि-सान्त, सादि-अनन्त, अनादि-सान्त एवं अनादि अनन्त के भेद से चार प्रकार का है । चौथा अद्धाकाल है। यह अढ़ाईद्वीप (जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड एवं अर्द्ध पुष्करद्वीप) क्षेत्र में सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह-नक्षत्रों की गति-क्रिया से उत्पन्न होता है। अद्धाकाल के ही भेद हैं-समय, आवलिका, मुहूर्त आदि। यह अद्धाकाल जब जीवों के आयुष्य मात्र का कथन करता है, तो उसे यथायुष्ककाल कहा जाता हैं।"
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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