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________________ 408 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । - तत्त्वार्थसूत्र, 1.4 जीवाजीवा पुण्यं पापासवसंवराः सनिर्जरणाः। बन्धामोक्षाश्चैतेसम्यचिन्त्याः नवपदार्थाः।। - प्रशमरतिप्रकरण, 189 इस सम्बन्ध में चार बिन्दु विचारणीय हैं(क) पदार्थ एवं तत्त्व में कोई भेद है या नहीं ? (ख) उमास्वाति ने नौ पदार्थों के स्थान पर सात तत्त्वों का निरूपण किस ___ अपेक्षा से किया ? (ग) उन्होंने इन तत्त्वों का क्रम क्यों बदला ? (घ) क्या उनके द्वारा पुण्य-पाप का समावेश आसव या बन्ध में करना उचित है ? चारों प्रश्नों के सम्बन्ध में क्रमशः विचार प्रस्तुत हैं (क) पदार्थ एवं तत्त्व शब्द जैनदर्शन में एकार्थक हैं । स्वयं उमास्वाति ने तत्त्वार्थभाष्य में 'सप्तविधोऽर्थस्तत्त्वम्' 'एते वा सप्तपदार्थास्तत्त्वानि' (तत्त्वार्थभाष्य 1.4) वाक्यों द्वारा अर्थ, पदार्थ एवं तत्त्व को एकार्थक बतलाया है। (ख) उमास्वाति ने पुण्य एवं पाप पदार्थ का समावेश आस्रव तत्त्व में किया है, जैसा कि उनके 'शुभः पुण्यस्य''अशुभः पापस्य' (तत्त्वार्थसूत्र, 6.3-4) सूत्रों से प्रकट होता है । आस्रव के साथ बन्ध तत्त्व में इनका समावेश स्वतः सिद्ध है, क्योंकि, बंधी हुई कर्मप्रकृतियाँ या तो पुण्य रूप होती हैं या पाप रूप । प्रशमरतिप्रकरण के टीकाकार हरिभद्र ने पुण्य एवं पाप का समावेश बन्ध तत्त्व में ही किया है- शास्त्रे पुण्यपापयोर्बन्धग्रहणेनैव ग्रहणात्सप्तसंख्या ।(कारिका 189 कीटीका) (ग) प्रशमरतिप्रकरण एवं विभिन्न आगमों में तत्त्वों का क्रम जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव, संवर, निर्जरा, बन्ध एवं मोक्ष के रूप में है । पुण्य-पाप की पृथक् गणना न करने पर इनका क्रम रहता है- जीव, अजीव, आसव, संवर, निर्जरा, बन्ध एवं मोक्ष । किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने आसव के पश्चात् बन्ध को रखकर क्रम बदल दिया है। उनके द्वारा ऐसा किया जाना उचित प्रतीत होता है,
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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