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________________ उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण एवं उसकी तत्त्वार्थसूत्र से तुलना 403 स्पर्शरसगन्धवर्णाः शब्दोबन्धश्च सूक्ष्मता स्थौल्यम्। संस्थानं भेदतमश्छायोद्योतातपश्चेति ।। - प्रशमरतिप्रकरण, 216 पुद्गल के लक्षण से सम्बद्ध उपर्युक्त दो सूत्रों एवं कारिका में पूर्ण साम्य है। मात्र उद्योत एवं आतप के क्रम में भिन्नता है। (vi)शरीरवाङ्मनः प्राणापाना:पुद्गलानाम् । तत्त्वार्थसूत्र, 5.19 सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च । तत्त्वार्थसूत्र, 5.20 कर्मशरीरमनोवाग्विचेष्टितोच्छ्वासदुःखसुखदाः स्युः। जीवितमरणोपग्रहकराश्च संसारिणः स्कन्धाः ।। - प्रशमरति, 217 शरीर, वाक्, मन, उच्छ्वास (प्राणापान), सुख, दुःख, जीवन, मरण- ये सब संसारी जीव पर पुद्गल के उपकार हैं। (vii) वर्तनापरिणामः क्रियापरत्वापरत्वेचकालस्य तत्त्वार्थसूत्र, 5.22 ___परिणामवर्तनाविधिः परापरत्वगुणलक्षणः कालः। प्रशमरतिप्रकरण, 218 वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व एवं अपरत्व काल के उपकार हैं। प्रशमरतिप्रकरण में इन्हें काल के लक्षण के रूप में प्रतिपादित किया गया है। परत्व, अपरत्व आदि का उल्लेख वैशेषिक दर्शन के ग्रन्थों में भी हुआ है। प्रशस्तपादभाष्य में कहा गया है- परत्व, अपरत्व, युगपद्, अयुगपद्, चिर, क्षिप्र आदि के ज्ञान में कारण 'काल' है। (कालः परापरव्यतिकर-योगपद्यायौगपद्य चिरक्षिप्रप्रत्ययलिङ्गम् - प्रशस्तपादभाष्य, काल निरूपण) (viii) उत्पादव्ययधौव्ययुक्तंसत् । - तत्त्वार्थसूत्र, 5.29 अर्पितानर्पितसिद्धेः।- तत्त्वार्थसूत्र, 5.31 उत्पादविगमनित्यत्वलक्षणंयत्तदस्तिसर्वमपि । सदसद्वाभवतीत्यन्यथार्पितानर्पितविशेषात् ।। - प्रशमरतिप्रकरण, 204 उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य से युक्त को सत् कहा गया है। इनमें प्रधान गौणभाव के कारण वस्तु को कभी नित्य एवं कभी अनित्य कहा जाता है। व्यय के लिए प्रशमरति में विगम एवं ध्रौव्य के लिए नित्यत्व का प्रयोग हुआ है, शेष यथावत् है। अध्याय-6 शुभः पुण्यस्य। ___अशुभ: पापस्य ।- तत्त्वार्थसूत्र, 6.3-4
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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