SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण एवं उसकी तत्त्वार्थसूत्र से तुलना स्त्री, भक्त, चोर और जनपद कथा परित्याज्य हैं । ( कारिका 182-183) शास्त्र का लक्षण - प्रशमरतिप्रकरण में शास्त्र का लक्षण धर्म में अनुशासित कर दुःख से त्राण करना स्वीकार किया गया है । उमास्वाति कहते हैं कि 'शास्’ धातु अनुशासन अर्थ में पढ़ी जाती है, 'त्रैङ्' धातु पालन अर्थ में निश्चित है (कारिका 186) । उमास्वाति ने शास्त्र को रागादि के शासन का साधन बताते हुए कहा है कि जो रागद्वेष से उद्धत चित्त वाले मनुष्यों को धर्म में अनुशासित करे तथा दुःख से रक्षा करे, वही शास्त्र है यस्माद्रागद्वेषोद्धतचित्तान् समनुशास्ति सद्धर्मे । संत्रायते च दुःखाच्छास्त्रमिति निरुच्यते सद्भिः ।। -प्रशमरति,कारिका 187 प्रशमरतिप्रकरण और तत्त्वार्थसूत्र : पारस्परिक साम्य 399 प्रशमरतिप्रकरण एवं तत्त्वार्थसूत्र में अनेक स्थलों पर पर्याप्त साम्य है । यह साम्य कहीं शब्दशः भी प्रकट हुआ है, जो यह सिद्ध करता है कि तत्त्वार्थसूत्र एवं प्रशमरति के रचयिता एक ही हैं । साम्य इतना स्फुट है कि उससे इनकी एककर्तृकता में सन्देह नहीं रह जाता है । तत्त्वार्थसूत्र के तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय के अतिरिक्त शेष सभी अध्यायों की कुछ विषयवस्तु एवं सूत्रों की तुलना प्रशमरतिप्रकरण से की जा सकती है । यहाँ पर अध्याय क्रम से तुलना प्रस्तुत है अध्याय-1 (i) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । तत्त्वार्थसूत्र, 1.1 सम्यक्त्वज्ञानचारित्रसम्पदः साधनानि मोक्षस्य । तास्वेकतराऽभावेऽपि मोक्षमार्गोऽप्यसिद्धिकरः । प्रशमरतिप्रकरण, 230 प्रशमरतिप्रकरण की दूसरी पंक्ति का साम्य तत्त्वार्थभाष्य की निम्न पंक्ति में द्रष्टव्य है- एतानि च समस्तानि मोक्षसाधनानि, एकतराऽभावेऽप्यसाधनानीत्यतस्त्रयाणां ग्रहणम् । - तत्त्वार्थभाष्य, 1. 1 (ii) तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तन्निसर्गादधिगमाद्वा । तत्त्वार्थसूत्र 1. 2-3 एतेष्वध्यवसायो यो ऽर्थेषु विनिश्चयेन तत्त्वमिति । सम्यग्दर्शनमेतच्च, तन्निसर्गादधिगमाद्वा ।। - प्रशमरतिप्रकरण, 222
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy