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________________ 389 प्रतिक्रमण तत्काल निवृत्ति हेतु 4. पाक्षिक 5. चातुर्मासिक 6. सांवत्सरिक एवं 7. उत्तमार्थसंलेखना-संथारा के समय यावज्जीवन चारों ‘आहारों' के त्याग के साथ कृत प्रतिक्रमण। उस तरह श्वेताम्बर परम्परा से दिगम्बर परम्परा में ईर्यापथिक एवं उत्तमार्थ प्रतिक्रमण विशिष्ट हैं। मूलाचार में प्रतिक्रमण के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव में कृत अपराधों या दोषों का निन्दना एवं गर्हापूर्वक मन, वचन एवं काया से शोधन करना प्रतिक्रमण है।' अमितगति के अनुसार सायंकाल प्रतिक्रमण में 108 श्वासोच्छ्वास प्रमाण, प्रातःकालीन प्रतिक्रमण में 54 श्वासोच्छ्वास एवं अन्य कायोत्सर्ग 27 श्वासोच्छ्वास प्रमाण कहा गया है। दिगम्बर परम्परा में भी श्रमणों एवं श्रावकों दोनों के लिए प्रतिक्रमण का विधान है, किन्तु वर्तमान में प्रतिक्रमण करने की परम्परा मुनियों तक सीमित है। विरले ही ऐसे दिगम्बर श्रावक होंगे जो नियमित रूप से प्रतिक्रमण करते होंगे। इस परम्परा में भी प्रतिक्रमण के अन्तर्गत वर्तमान में भक्ति पाठों का अधिक सन्निवेश हो गया है। __ परम्पराएँ सदैव अमूर्त भावों पर कम एवं मूर्त क्रियाओं पर अपना आग्रह रखती आई हैं। इसलिए कुछ बिन्दुओं पर विवाद उठते रहते हैं। स्थानकवासी परम्परा में प्रतिक्रमण संबंधी विवाद को दूर कर एक श्रावक प्रतिक्रमण तय करने हेतु सन् 1933 के अजमेर साधु-सम्मेलन में 'प्रतिक्रमण निर्णय समिति' का गठन किया गया था। पूज्य (आचार्य) श्री हस्तीमल जी म.सा. के संयोजन में श्रावक प्रतिक्रमण 'सार्थ सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र' प्रकाशित हुआ। सम्मेलन में यह भी निर्णय हुआ कि दैवसिक प्रतिक्रमण में 4, पक्खी प्रतिक्रमण में 8, चातुर्मासिक में 12 एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में 20 लोगस्स का ध्यान किया जाएगा। किन्तु अभी भी इसके सहित कुछ बिन्दुओं पर मतभेद हैं, यथा- श्रावक प्रतिक्रमण एक किया जाये या दो? इन विवादों में सबके अपने-अपने तर्क हैं। जो जैसा मानता है वह उसके अनुसार तर्क ढूँढ लेता है। वैसे ज्ञातासूत्र में पंथकजी द्वारा दो प्रतिक्रमण किये जाने को सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता। जिस प्रकार पाक्षिक प्रतिक्रमण में देवसिय प्रतिक्रमण सम्मिलित माना जाता है उसी प्रकार चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में देवसिय प्रतिक्रमण को सम्मिलित मानने में कोई बाधा
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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