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________________ प्रतिक्रमण 387 आवश्यक सूत्र में योजित किए गए हैं। इन सब पाठों के योजित होने एवं निश्चित विधि का निर्धारण होने से श्रमण-प्रतिक्रमण समग्रता से युक्त है। __ श्रमण-प्रतिक्रमण में पांच पाठ मुख्य हैं- 1. शय्यासूत्र 2. गोचरर्यासूत्र 3. काल प्रतिलेखनासूत्र 4. तैंतीस बोल और 5. प्रतिज्ञा सूत्र। साधु-साध्वी के द्वारा अधिक समय तक सोना, बार-बार एवं बिना सावधानी के करवट बदलना, बिना प्रमार्जन हाथ पैर पसारना, अयतना से शरीर को खुजलाना, प्राणियों का शरीर तले दब जाना आदि आचरणीय नहीं हैं। शय्यासूत्र में इन दोषों के लिए 'मिच्छा मि दुक्कडं' दिया जाता है। गोचरचर्यासूत्र में गोचरी (भिक्षाविधि) एवं आहार सेवन से सम्बद्ध दोषों की आलोचना की जाती है। साधु साध्वी सूर्योदय के पहले गृहस्थ से आहार नहीं ले सकते तथा उसका सेवन भी नहीं कर सकते। प्रथम प्रहर का लिया भोजन चतुर्थप्रहर में सेवन नहीं कर सकते। उसके पहले ही उन्हें उसका उपयोग करना होता है। ग्रहण किए गए आहार को दो कोश से आगे नहीं ले जा सकते। इसी प्रकार प्रमाण या भूख से अधिक नहीं खा सकते। वे गवेषणैषणा, ग्रहणैषणा एवं परिभोगैषणा से सम्बद्ध 42 दोषों को टालकर आहार सेवन करते हैं। साधु-साध्वी के लिए चारों काल स्वाध्याय और दोनों सन्ध्याकाल में वस्त्र, पात्र आदि के प्रतिलेखन का विधान है। इनमें यदि कोई दोष रह जाए तो स्वाध्याय-प्रतिलेखना सूत्रपाठ के द्वारा उन दोषों की आलोचना की जाती है। तैंतीस बोल का पाठ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है इसके अन्तर्गत आत्मशुद्धि का गहन अभ्यास किया जाता है। इसके अन्तर्गत असंयम, राग-द्वेष, दण्ड, शल्य, गारव, विराधना, गुप्ति, कषाय, संज्ञा, विकथा, ध्यान, क्रिया, कामगुण, समिति, षड् जीवनिकाय, लेश्या, भय, मद आदि से सम्बद्ध दोषों या अतिचारों का प्रतिक्रमण किया जाता है। इससे नियमित आत्मशोधन होता है तथा जीवन में सजगता बनी रहती है। इनके पश्चात् प्रतिज्ञापाठ में असंयम से निवृत्त होने, अब्रह्म, प्रत्याख्यान, अज्ञान, अक्रिया, मिथ्यात्व आदि का प्रत्याख्यान परिज्ञा से त्याग किया जाता है। इससे साधु जीवन के पालन में दृढ़ता एवं नई ऊर्जा का अनुभव होता है। श्रावक प्रतिक्रमण के पाठ भी श्रावक को सन्मार्ग पर स्थिर रखकर व्रतों के पालन के प्रति दृढ़ बनाते हैं तथा व्रतों के पालन में लगे अतिचारों की शुद्धि में
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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