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________________ 375 प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा 5. कषाय की संलेखना के साथ सात प्रकार के भय, आठ प्रकार के मद, तीन प्रकार के गारव, तीन प्रकार के शल्य, चार प्रकार की संज्ञाओं और तैंतीस प्रकार की आशातना आदि त्यागने का उल्लेख प्रकीर्णकों में ही प्राप्त होता है। इनमें ममत्व व्युच्छेद पर भी बल दिया गया है। 6. भक्तपरिज्ञा, इंगिनी एवं पादपोपगमन मरणों के भेदों का स्वरूप सहित वर्णन कर प्रकीर्णकों ने समाधिमरण के प्रत्यय को अधिक स्पष्ट किया तथा महत्त्व प्रदान किया है। 7. समाधिमरण के पूर्व समस्त जीवों से क्षमायाचना करना (आत्मशुद्धि के लिए) आवश्यक माना गया है। 8. समाधिमरण से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होती है तथा नवीन कर्मों के आनव का निरोध होता है, जिससे मुक्ति का मार्ग सरल हो जाता है। इससे पूर्वबद्ध कर्मों का स्थितिघात एवं रसघात होता है। 9. जो जीव समाधिमरणपूर्वक मरता है वह उसी भव में अथवा अधिकतम 7-8 भवों में मोक्ष प्राप्त कर लेता है । 10. अनशन एवं उपधि के त्याग के साथ शरीर का त्याग भी आवश्यक है। शरीर का त्याग करने का आशय उसके दुःख सुःख से अप्रभावित होने अथवा आत्मा से उसे भिन्न अनुभव करने से है। 11. समाधिमरणपूर्वक मरने वाला निर्भय होकर मरता है, सबके प्रति मैत्री - भाव रखता हुआ मरता है, उसका किसी के प्रति वैर भाव नहीं रहता । वह व्याकुल होकर नहीं मरता। वह अनाकुल रहता हुआ समाधिभाव में देह छोड़ देता है। 12. मरण के विविध प्रकारों में यह सबसे उत्कृष्ट मरण है। 13. यह आत्महत्या एवं युद्ध क्षेत्र में मरने से भिन्न है, क्योंकि उनमें कषाय के आवेश में मरण होता है, जबकि समाधिमरण में कषायों पर जय प्राप्त की जाती है। 14. समाधिमरण एक प्रकार से सजगतापूर्वक मरण है, जिसे पूर्ण तैयारी के साथ स्वीकार किया जाता है। अचानक मृत्यु का प्रसंग आने पर भी साधक इस
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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