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________________ प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा 373 इसी प्रकार मंगल माना गया है। भक्तपरिज्ञा प्रकीर्णक में अरिहंत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन, आचार्य एवं सर्वसाधुओं के प्रति तीनों करणों से भक्ति करने का उल्लेख है। इसी प्रकीर्णक में अरिहंत को किए गए नमस्कार का फल बतलाते हुए कहा है अरिहंतनमुक्कारो वि हविज्ज जो मरणकाले। सो जिणवरेहिं दिट्ठो संसारुच्छेअणसमत्थो।। अर्थात मरणकाल में अरिहंत को किया गया नमस्कार भी जिनवरों के द्वारा संसार उच्छेद करने वाला कहा गया है। नमस्कार महामन्त्र में उसे पापनाशक कहा गया है, ये ही भाव आराधनाप्रकरण में इस प्रकार आए हैं इय पंचनमुक्कारो पावाण पणासणोऽवसेसाणं। तो सेसं चइऊणं सो गेज्झो मरणकालम्मि।। आगे कहा हैपंचनमोक्कारवरत्थसंगओ अणसणावरणजुत्तो। वयकरिवरखंधगओ मरणरणे होइ दुज्जेओ। अर्थात् पाँच नमस्काररूपी श्रेष्ठ अस्त्र से युक्त, अनशनरूपी कवच को धारण किया हुआ तथा व्रतरूपी हाथी के स्कन्ध पर आरूढ़ साधक मरणरूपी युद्धक्षेत्र में दुर्जेय होता है। 9.देह विसर्जन देह छोड़कर जब आत्मा का महाप्रयाण हो जाता है, तब देह का विसर्जन कब एवं किस प्रकार किया जाना चाहिए, इसके सम्बन्ध में प्रकीर्णकों में कोई संकेत नहीं मिलता, किन्तु भगवती आराधना में मरे हुए साधु की देह को वहां से तत्काल हटाने का उल्लेख है।" समाधिमरण और आत्महत्या जैनेतर सम्प्रदाय के लोग या समाधिमरण के स्वरूप से अनभिज्ञ लोग इसे आत्महत्या की संज्ञा देते हैं, किन्तु उनका यह मन्तव्य उचित नहीं है, क्योंकि आत्महत्या करते समय तो कषायों में अभिवृद्धि अर्थात् संक्लेश होता है जबकि समाधिमरण में कषायों पर जय प्राप्त की जाती है। यह साधना का एक उत्कृष्ट प्रकार है, जिसके द्वारा ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप का आराधन किया जाता है।
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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