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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन ये तीन सोपान ही बनते हैं, किन्तु समाधिमरण का स्वरूप कुछ स्पष्ट हो सके, इसलिए सात सोपानों में इनका विवेचन किया जा रहा है। 1. संलेखना 366 संलेखना का अर्थ है कृश करना। संलेखना दो प्रकार की होती है - 1. बाह्य और 2. आभ्यन्तर । शरीर की संलेखना बाह्य संलेखना कहलाती है तथा कषायों की संलेखना आभ्यन्तर संलेखना होती है । 2 विविध प्रकार के आयम्बिल, उपवास आदि तप करके शरीर को कृश करना शरीर संलेखना है । अल्प, विरस एवं रूखा आहार ही उस साधक के लिए ग्राह्य है । बेले, तेले, चोले आदि की तपस्याएं एवं प्रतिमा आराधना भी वह कर सकता है । शरीर की इस संलेखना के साथ कषाय की संलेखना आवश्यक है। यदि शरीर कृश होता जाय और अध्यवसायों में विशुद्धि न हो तो शरीर की संलेखना भी निरर्थक हो जाती है। कषायों में कमी करने का साधक निरन्तर प्रयास करे । वह क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को आर्जव से एवं लोभ को संतोष से जीते ।" वह राग एवं द्वेष दोनों से बचे तथा निस्संग होकर विचरण करे। शरीर संलेखना जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेदों की अपेक्षा तीन प्रकार की है। जघन्य संलेखना 12 पक्ष अर्थात् छः माह, मध्यम संलेखना 12 माह तथा उत्कृष्ट संलेखना 12 वर्षो तक चलती है ।" इसका अर्थ है कि समाधिमरण से मरने वाला साधक अपनी तैयारी पर्याप्त समय रहते प्रारम्भ कर देता है। 45 संलेखना साधना का लक्ष्य वस्तुतः कषायों में कमी लाना है। शरीर की संलेखना भी उसी की पूर्ति के लिए की जाती है। जो साधक तपस्या आदि के माध्यम से शरीर को कृश तो कर लेता है, किन्तु कषायों को कृश नहीं करता, उसकी साधना निष्फल रहती है। 2. आत्म- आलोचन समाधिमरण का यह दूसरा महत्त्वपूर्ण सोपान है। इसके द्वारा अपने भीतर विद्यमान दोषों का अवलोकन कर उन्हें छोड़ा जाता है। संलेखना करते हुए भी जो दोष साधक के भीतर शेष रह जाते हैं, उनका त्याग आत्म - आलोचन के द्वारा ही
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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