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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन पूर्वापर में अन्वयी है। उसका अन्वयी रूप ध्रुव है, पूर्वापरपर्याय के नाश एवं उत्पाद से उसमें व्यय एवं उत्पाद की सिद्धि होती है । अतः 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्'सल्लक्षणयोग से कालद्रव्य की सत्तासिद्धि होती है। 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्'। (तत्त्वार्थसूत्र 5.37) एवं 'द्रव्यम् सल्लक्षणम्' सूत्रानुसारी द्रव्यलक्षण भी काल में घटित होने से वह स्वतन्त्र द्रव्य है। उपाध्याय विनयविजय ने भी काल की सिद्धि में विभिन्न तर्क दिए हैं, यथा1. जिस प्रकार स्कन्धादि कार्यों से परमाणु स्वरूप कारण का अनुमान होता है उसी प्रकार सूर्य आदि की गति को देखकर काल का अनुमान होता है।" 2. समयादि विशेष स्वरूप के आधार से काल का पृथक् द्रव्यत्व सिद्ध होता है। 3. लोक में नानाविध ऋतुभेद दृष्टिगोचर होता है, जिसका कारण काल है। . 4. अन्य समस्त कारणों के होने पर भी आम्रादि वृक्षों में फल नहीं लगते हैं, वे नाना शक्ति समन्वित काल की अपेक्षा रखते हैं। 5. काल द्रव्य को स्वीकार किए बिना वर्तमान, अतीत, भविष्यत् आदि शब्दों का प्रयोग संभव नहीं है तथा कालद्रव्य के बिना इनका पृथक् रूप से ज्ञान भी सम्भव नहीं। 6. क्षिप्र, चिर, दिवस, मास, वर्ष, युग आदि शब्द भी काल द्रव्य को सिद्ध करते हैं। 7. जिस शुद्ध पद से जो वाच्य होता है वह संसार में अवश्य होता है, इस अनुमान से भी काल शब्द के द्वारा कालद्रव्य की सिद्धि होती है। भट्ट अकलक ने तत्त्वार्थवार्तिक में यह स्पष्ट किया है कि आकाश द्रव्य अन्य द्रव्यों का आधार होता है, परन्तु उनकी वर्तना में निमित्त कालद्रव्य ही होता है। कालद्रव्य की वर्तना में अन्य निमित्त की आवश्यकता नहीं होती । काल द्रव्य का वर्तना लक्षण दूसरे द्रव्यों की सत्ता सिद्ध करने के साथ स्वकाल द्रव्य की भी सत्ता सिद्ध कर देता है। काल के उपकार:वर्तनादि का स्वरूप जैन दर्शन में काल के कुछ उपकार या कार्य स्वीकृत हैं, यथा वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व । इन कार्यों से कारण स्वरूप काल द्रव्य का अनुमान
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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