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________________ 316 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन जो सब जीवों को सम्यक् रूप से अपने समान समझकर उनके साथ व्यवहार करता है वह आम्नव का निरोध करता हुआ पापकर्म का बंध नहीं करता। जो जीव के सम्यक् स्वरूप को न समझकर व्यवहार करता है वह कर्म-बंध करता है और उसका फल भोगना पड़ता है। अतः कर्मबन्धन से बचने के लिए हिंसा का त्याग करना आवश्यक है। 4. हिंसा से हिंसा की शुद्धि नहीं होती भगवान महावीर ने बदले की भावना से किए जाने वाले कार्य का निषेध किया है। वे कहते हैं कि रुधिर से सने हुए वस्त्र को यदि रुधिर से ही धोया जाय तो वह स्वच्छ नहीं हो सकता- रुहिकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स णत्थि सोही।" इसी प्रकार हिंसा का उपचार हिंसा नहीं है। अहिंसा से ही हिंसा पर काबू पाया जा सकता है। क्षमा के द्वारा हिंसक को शान्त बनाया जा सकता है। क्षमा से प्रह्लाद भाव उत्पन्न होता है, मैत्रीभाव का स्थापन होता है। आचारांग सूत्र में कहा गया है- हिंसा तो एक से बढ़कर एक होती है, किन्तु अहिंसा सबसे बढ़कर है- अस्थि सत्यं परेण परं णत्थि असत्यं परेण परं।" 5. हिंसा अहित एवं अबोधि का हेतु है ___ हिंसा किसी भी प्रकार की क्यों न हो, वह अहित एवं अज्ञान का ही निमित्त बनती है। आचारांग सूत्र में कहा गया है- इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणण-पूयणाए जातिमरण- मोयणाए दुक्खपडिघातहेउं से सयमेव पुढविसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा पुढविसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणति।तंसे अहिताए, तंसे अबोधीए। कोई मनुष्य इसी जीवन के लिए प्रशंसा, आदर तथा पूजा की प्राप्ति हेतु, जन्म-मरण एवं मोक्ष के लिए तथा दुःख का प्रतिघात करने हेतु पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक एवं वायुकायिक जीवों की स्वयं हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा कराता है तथा इनकी हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है। यह उसके अहित एवं अबोधि के लिए है। यहाँ पर भगवान महावीर का संदेश है कि किसी उत्तम प्रयोजन के लिए की गई हिंसा भी अज्ञान एवं
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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