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________________ जैनागम साहित्य में अहिंसा हेतु उपस्थापित युक्तियाँ 311 सत्त्व का हनन नहीं किया जाना चाहिए, उन्हें शासित, दास, परितापित एवं अशान्त नहीं बनाया जाना चाहिए। यह अहिंसा धर्म ध्रुव, नित्य एवं शाश्वत है। इसे क्षेत्रज्ञों आत्मज्ञों ने लोक को जानकर कहा है। इस कथन से यह स्पष्ट है कि अहिंसा शाश्वत धर्म है। यह व्यक्ति एवं समष्टि दोनों के लिए हितकारी है। हिंसाका प्रमुख कारणः अज्ञान हिंसा तभी घटित होती है, जब आत्मिक स्तर पर प्रमाद या असजगता विद्यमान हो । ज्ञान का सम्यक् स्वरूप प्रकट होने पर एवं अप्रमत्तता आने पर हिंसा नहीं की जा सकती। इसलिए सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है- एवंखुनाणिणो सारं जंन हिंसति किंचणं। अज्ञान से आच्छन्न एवं उसके कारण प्रमादयुक्त बने हुए व्यक्ति ही प्रायः हिंसा में प्रवृत्त होते हैं। हिंसा के अन्य कारण भी हैं - 'कुद्धा हणंति, लुद्धा हणंति, मुद्धा हणंति।" - अर्थात् क्रोधी, लोभी एवं अज्ञानी हिंसा करते हैं। आचारांगसूत्र में हिंसा की तीन स्थितियों का निरूपण हुआ है - स्वयं हिंसा करना, दूसरों से हिंसा कराना एवं हिंसा करते हुए का समर्थन करना। ये तीनों प्रकार के हिंसाकार्य त्याज्य हैं। वहाँ पर छह प्रकार के जीव निकायों- पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वनस्पतिकायिक, त्रसकायिक एवं वायुकायिक की हिंसा स्वयं करने, दूसरों से कराने एवं हिंसा करने वाले का अनुमोदन करने को त्याज्य बताते हुए कहा गया है कि मेधावी पुरुष इन छहों जीव निकायों की तीनों प्रकार से हिंसा नहीं करता, यथा- 'तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं छज्जीवणिकायसत्थं समारंभेज्जा, णेवऽणेहिं छज्जीवणिकायसत्थं समारंभावेज्जा, णेवऽण्णे छज्जीवणिकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा'। सूत्रकृतांग सूत्र में इन जीव निकायों की मन, वचन एवं काया के स्तर पर हिंसा का निषेध है, यथा- 'एतेहिं छहिं काएहिं, तं विज्जं परिजाणिया। मणसा कायवक्केणं, णारंभी ण परिग्गही'।' अहिंसा के लक्षण में उत्तरवर्ती साहित्य में विकास होता रहा है। तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ प्रमत्तयोग से प्राणों के व्यपरोपण को हिंसा कहा गया है, वहाँ अमृतचन्द्र ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में रागादि की अनुत्पत्ति को ही अहिंसा कह दिया है-'अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति"। किन्तु इस प्रकार की अहिंसा तो
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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