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________________ 306 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन अभिलाषी व्यक्ति प्रमत्त होकर परिताप को प्राप्त होता है।* विषयों के प्रति प्रमत्त व्यक्ति इस जीवन में अन्य प्राणियों के हनन, छेदन, भेदन, चोरी, अपहरण, उपद्रव, उत्त्रास आदि प्रवृत्तियों में सन्नद्ध रहता है तथा यह मानने लगता है कि जो अब तक नहीं किया गया है मैं वह कार्य करूँगा। इस आवेश में वह अनेकविध हिंसा को जन्म देता रहता है। आज मनुष्य में ऐसी प्रवृत्ति पर्याप्त रूप से दृष्टिगोचर होती है। वह प्रमाद के कारण मिथ्या-अभिमान में आकर प्राणिजगत् के लिए अहितकर प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है। आतंकवाद हो या घरेलू हिंसा- ये सभी हिंसाएँ अज्ञानी की प्रमत्तता के कारण होती हैं। ज्ञानी भी असावधानी पूर्वक जीवन जीते समय प्रमाद करता है, उसकी असावधानी से भी हिंसा होती है। अतः उसे भी प्रमाद त्याग करना चाहिए। इस प्रकार प्रमाद का त्याग हिंसा को नियन्त्रित करने का एक आध्यात्मिक उपाय है। प्रमाद के कारण ही हिंसा बंधनकारिणी होती है। ___आचारांगसूत्र में विवेकपूर्वक क्रिया करने पर बल दिया गया है। विवेकपूर्वक की गई क्रिया सावधानी के साथ की जाती है। इसी के लिए आगे चलकर दशवैकालिकसूत्र में 'यतना' शब्द का प्रयोग हुआ है।” सोना, उठना, बैठना, चलना आदि प्रत्येक क्रिया यतना के साथ करने पर जीवों का संरक्षण भी होता है तथा क्रिया भी निर्दोष रूप से सम्पन्न होती है। साधु-साध्वियों के लिए यतनापूर्वक गमनागमन की दृष्टि से ईर्या समिति का, यतनापूर्वक बोलने के लिए भाषा समिति का, आहार आदि के निर्दोष अन्वेषण हेतु एषणा समिति का, वस्तुओं को सावधानी के साथ उठाने एवं रखने हेतु आदान-निक्षेपण समिति का, शारीरिक-मलमूत्र आदि के विवेकपूर्वक उत्सर्जन हेतु परिष्ठापनिका समिति का प्रतिपादन किया गया है। साधु-साध्वी की इस आचार-संहिता से प्रेरणा लेकर गृहस्थ भी अपने कार्यों को जहाँ तक सम्भव हो विवेकपूर्वक या यतनापूर्वक सम्पन्न करें तो महती हिंसा से बचा जा सकता है। लोकसंज्ञा के कारण मनुष्य दूसरों की देखा-देखी हिंसा करता है। इस हिंसा को रोकने के लिए जनमानस में अधिकाधिक इस बात का प्रचार किये जाने की आवश्यकता है कि आप दूसरों को देखकर हिंसा के साधनों का अवलम्बन न लें, अपितु स्व-विवेक से यह निर्णय करें कि मैं अकारण ही हिंसा में प्रवृत्त होकर दूसरे
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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