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________________ आचारांगसूत्र में अहिंसा आचारांग में प्रतिपादित अहिंसा मनुष्य की चेतना को संवेदनशील, जागरूक, आत्मवद्भाव से ओतप्रोत, ज्ञानसम्पन्न एवं अप्रमत्त बनाती है। आचारांगसूत्र में अहिंसा का जितना आधारभूत एवं मानव की चेतना से जुड़कर निरूपण हुआ है, उत्तरकालीन जैन ग्रन्थों में उसी का विस्तार प्राप्त होता है। अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में आचारांग न केवल जैनों का ग्रन्थ है, अपितु यह विश्व का एक अनमोल ग्रन्थरत्न है, जिसमें अहिंसा की प्रतिष्ठा मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक पक्षों को आधार बनाकर की गई है। जैनागम आचारांगसूत्र दो श्रुतस्कन्धों में निबद्ध है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में नौ अध्ययन हैं, तथा द्वितीय श्रुत स्कन्ध में सोलह अध्ययन हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध भाषा एवं विषय प्रतिपादन की दृष्टि से द्वितीय श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में साधना के विभिन्न सूत्र उपलब्ध हैं। यह आगम दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक रीति से मनुष्य को बोध प्रदान करता है तथा उसे हिंसा, आसक्ति, परिग्रह, प्रमाद एवं क्रोधादि दोषों से रहित होने के लिए प्रेरणा करने के साथ उनके त्याग हेतु मार्ग भी प्रशस्त करता है। आचारांग में सत्य को जानने, समझने एवं उसको आचरण में लाने की महती प्रेरणा की गई है। अहिंसा का शाश्वत सन्देश भी इसमें मुखर हुआ है। महावीर की अहिंसा के हमें पाँच लक्ष्य दृग्गोचर होते हैं- 1. आत्मशुद्धि, 2. प्राणिरक्षण, 3. पर्यावरण संरक्षण , 4. उन्नत समाज एवं 5. विश्व शान्ति । आचारांग में हमें इन पाँचों लक्ष्यों की पूर्ति हेतु चिन्तन-बिन्दु प्राप्त होते हैं। यह विश्व अनेक छोटे-बड़े प्राणियों से युक्त है। मनुष्य की भाँति विश्व के सभी प्राणियों का जीवन महत्त्वपूर्ण है। पेड़-पौधों एवं पशु-पक्षियों का जीवन भी सन्तुलित पर्यावरण के लिए आवश्यक है। इसलिए जगत् के सभी जीवों का संरक्षण मानव का परम कर्त्तव्य है। आचारांगसूत्र में मानव के इस कर्त्तव्य को मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि सभी जीव जीना चाहते हैं, सबको आयुष्य प्रिय है, सबको सुख अनुकूल एवं दुःख प्रतिकूल लगता है, सबको जीवन प्रिय है। अतः किसी भी जीव की हिंसा नहीं की जानी चाहिए।'आत्मशान्ति एवं सुख सभी जीवों को प्रिय है। कष्ट एवं दुःख सबको प्रतिकूल लगते हैं। जीवों की यह
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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