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________________ 294 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन अनुकम्पा, वैयावृत्त्य, दान, मैत्री, वात्सल्य आदि। प्रश्नव्याकरण सूत्र में अहिंसा के 60 पर्यायवाची नाम उपलब्ध हैं, जिनमें अधिकांश शब्द अहिंसा के सकारात्मक स्वरूप को प्रस्तुत करते हैं। उनमें ‘दया' एवं 'रक्षा' शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं जो प्राणिमात्र के प्रति अहिंसात्मक सहयोग को ध्वनित करते हैं। निवृत्ति, समाधि, शान्ति, प्रीति (रति), तृप्ति, शान्ति, धृति, विशुद्धि, कल्याण, प्रमोद, मंगल आदि शब्द भी उसके सकारात्मक स्वरूप को ही इंगित करते हैं। जैन वाङ्मय में धर्म को दयामूलक प्रतिपादित किया गया है- दयामूलो भवेद् धर्मो । (आदिपुराण 5.21), धम्मो दयाविसुद्धो ( बोधपाहुड 25 )। दान को धर्म का एक भेद बताया गया है। (सप्ततिस्थानप्रकरण गाथा 96) अनुकम्पा को सम्यक्त्व का लक्षण निरूपित किया गया है-'तदेवं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थ- श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।(सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र 1.2 )। वात्सल्य को सम्यग्दर्शन के अंग के रूप में स्थान दिया गया है। जग के समस्त जीवों के प्रति मैत्रीभाव 'मित्ती मे सव्वभूएसु' (आवश्यकसूत्र) को आत्मविशुद्धि एवं निर्भयता का हेतु प्रतिपादित किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में क्षमा की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि क्षमाभाव से प्रह्लाद भाव उत्पन्न होता है तथा प्रह्लादभाव प्राप्त होने पर समस्त प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्वों के प्रति मैत्रीभाव उत्पन्न होता है। मैत्रीभाव प्राप्त होने पर जीव भावविशुद्धि करके निर्भय बन जाता है। (उत्तराध्ययन 29.17)। वैयावृत्त्य से कर्म-निर्जरा (स्थानांग 5.1) एवं तीर्थकर नामगोत्र के उपार्जन (उत्तराध्ययन 29.43) का कथन 'वैयावृत्त्य' की महत्ता को स्पष्ट करता है। वैयावृत्त्य का ही व्यापक रूप आज 'सेवा' है। सेवा का भाव सेवक एवं सेव्य दोनों का उपकार करता है। इस प्रकार जैन वाङ्मय में सकारात्मक अहिंसा का स्वरूप समाजहित को स्पष्ट करता है। निष्कर्ष यह है कि आचारांग, सूत्रकृतांग आदि सूत्रों में जो अहिंसा का निरूपण हुआ है उसका मात्र वैयक्तिक पक्ष नहीं है, अपितु उसका एक सामाजिक पक्ष भी है जो प्राणि-रक्षण के लिए हमें बार-बार प्रेरित करता है। अहिंसा का एक समाज-दर्शन भी है जो हमें दूसरे जीवों के प्रति संवेदनशील बनाकर करुणा एवं मैत्री का संदेश देता है। हिंसा समाज के लिए शत्रु है तो अहिंसा उसके लिए परम
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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