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________________ 288 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन जाएगा तो हिंसकों को हिंसा करने हेतु प्रोत्साहन मिलेगा एवं वे यह कहेंगे कि हमारा क्या दोष है, सामने वाले प्राणी का आयुष्य कर्म पूर्ण हो गया था, हम तो उसकी मृत्यु में मात्र निमित्त बने हैं। इससे हिंसा करना एक सामान्य बात हो जाएगी, जो दण्ड के योग्य भी नहीं ठहरायी जा सकेगी। इस तरह प्राणियों के प्रति अन्याय की अभिवृद्धि होगी एवं सामाजिक जीवन चरमरा जाएगा। कत्लखानों की बढ़ती संख्या को भी उन प्राणियों के आयुष्य कर्म की पूर्णता की दुहाई देकर उचित ठहराया जा सकेगा। इस प्रकार यह मान्यता धर्मविरोधी एवं प्राणिविरोधी बन जाएगी। अतः हिंसा से हिंसित प्राणी की जीवन-लीला के समाप्त होने को मात्र आयुष्यकर्म की क्षीणता का परिणाम मानना, हिंसा को बढ़ावा देना है। हिंसा के कारण आयुष्यकर्म पहले भी समाप्त हो सकता है। स्थानांगसूत्र में अकाल मृत्यु के सात कारण गिनाए गए हैं, जो यह प्रमाणित करते हैं कि प्राणी की निर्धारित आयु के पूर्व भी उसकी मृत्यु हो सकती है। वे सात कारण हैं अज्झवसाणणिमित्ते, आहारे वेयणपराघाते। फासे आणापाणे, सत्तविधंभिज्जए आउं।। -स्थानांगसूत्र, सप्तम स्थान 1. राग-द्वेष के तीव्र अध्यवसायों से, 2. शस्त्र, अस्त्र, बम-विस्फोट, विष आदि के निमित्त से, 3. आहार न मिलने अथवा अत्यधिक आहार करने से, 4. तीव्र वेदना होने से, 5. दूसरों के द्वारा चोट पहुँचाने, आघात पहुँचाने से, 6. विद्युत् धारा के स्पर्श आदि से, 7. श्वास-निःश्वास के अवरोध से आयुष्य का भेदन हो सकता है अर्थात् निर्धारित आयुष्य के पूर्व भी औदारिक शरीरधारियों की देह छूट सकती है। तत्त्वार्थसूत्र (2.52) में भी अपवर्तनीय आयुष्य की चर्चा आई है। वहाँ कहा गया है कि औपपातिक जन्म ग्रहण करने वाले देवों एवं नारकों, चरमशरीरी (उसी भव में मोक्ष प्राप्त करने वाले) जीवों, तीर्थकर, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि उत्तम पुरुषों, असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों, तिर्यचों को छोड़कर शेष सभी जीवों का आयुष्य अपवर्त्य होता है। अपवर्त्य का तात्पर्य है कि उस आयुष्य को समय से पहले भी भोग कर पूर्ण किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में इसे अकालमरण कहा
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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