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________________ 286 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन समझकर उनके दुःख-सुख के प्रति संवेदनशील होने का पाठ पढ़ाता है। जानबूझकर निर्दोष प्राणियों को कष्ट पहुँचाना प्रत्येक मनुष्य के लिए त्याज्य है। अहिंसा की आध्यात्मिक एवं सामाजिक दृष्टि हिंसा को कर्मबन्धन का कारण मानकर हिंसा न करना अहिंसा की आध्यात्मिक दृष्टि है तथा किसी भी प्राणी को हिंसा प्रिय नहीं, यह मानकर हिंसा न करना अहिंसा की सामाजिक दृष्टि है। इस तरह व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों दृष्टियों से हिंसा त्याज्य है। हिंसा-त्याग के ये दोनों रूप परस्पर पूरक भी हैं। बाह्य हिंसा जितनी त्याज्य है, उतनी भीतर में होने वाली भावात्मक हिंसा भी त्याज्य है, क्योंकि भावात्मक हिंसा ही बाह्य हिंसा को जन्म देती है। इसी प्रकार बाह्य अर्थात् अन्य प्राणियों की चेतना को अपने समान समझने पर बाह्य हिंसा भी रुकती है एवं भीतर में भी हिंसा के भाव कमजोर पड़ते हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि हम बाह्य जगत् के प्राणियों के प्रति असंवेदनशील होकर अहिंसा की भावात्मक साधना का दावा कर सकें। जिस प्रकार मैं चेतनावान् हूँ, मुझे सुख-दुःख की प्रतीति होती है, उसी प्रकार अन्य जीव भी चेतनाशील हैं तथा उन्हें भी सुख-दुःख का अनुभव होता है, अतः मैं उनके साथ अप्रिय एवं कटु व्यवहार न करूँ, यह समवेदना सामाजिक स्तर पर मेरी अहिंसा को पुष्ट करती है। __हिंसा का त्याग आध्यात्मिक दृष्टि से जहाँ संवर का कारण है वहाँ सामाजिक दृष्टि से उसका प्रभाव प्राणि-रक्षण के रूप में समस्त प्राणियों को प्राप्त होता है। हिंसा से मात्र हिंसक व्यक्ति प्रभावित नहीं होता, अपितु समाज प्रभावित होता है। अहिंसा का प्रभाव भी व्यक्ति एवं समाज, दोनों पर होता है। हिंसा का प्रभाव हमें शीघ्र परिलक्षित हो जाता है, जबकि अहिंसा के प्रभाव का अनुभव प्रेक्षावान् लोग ही कर पाते हैं। जहाँ अहिंसा होती है वहाँ प्राणी परस्पर वैरभाव का त्याग कर देते हैं। -अहिंसाप्रतिष्ठायांतत्सन्निधौ वैरत्यागः।-योगसूत्र, 2.35 प्रायः यह समझा जाता है कि हिंसा या अहिंसा का फल हिंसक को ही प्राप्त होता है, किन्तु व्यापकदृष्टि से चिन्तन किया जाए तो यह मान्यता उचित नहीं है। हिंसा एवं अहिंसा का दायरा दूसरों तक भी पहुँचता है। आए दिन बम विस्फोट या आतंकी घटनाएँ देश-विदेश में घटित होती रहती हैं। उन घटनाओं में अनेक
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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