SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांग सूत्र में अप्रमत्त जीवन की प्रेरणा 281 रहे हैं । यह घोर प्रमाद की अवस्था है। थोड़ा भी बोध होने लगे तो प्रमाद से ऊपर उठकर जीना सीखना है । जब जीवन में प्रमाद रहता है तो दोष सुरक्षित बने रहते हैं। ___ दोषों को हटाने के लिए जागरूकता आवश्यक है। सच्चे मुनि सदा जागरूक रहते हैं और अमुनि सदा सोये रहते हैं- "सुत्ता अमुणी मुणिणो सया जागरंति।" यह जागरूकता प्रतिपल आवश्यक है। एक साधु जब जागरूक होता है तो वह सातवें अप्रमत्त गुणस्थान में होता है तथा वहाँ से आगे के गुणस्थानों में भी बढ़ सकता है। किन्तु वह जागरूक न हो तो छ? प्रमत्त संयत गुणस्थान में ही अटका रहता है। सातवें गुणस्थान का जीव यदि गुणश्रेणी करता है तो वह अप्रमत्त होता है। यह गुणश्रेणी आत्मविकास की सूचक है। वीतरागता एवं केवलज्ञान की अवस्था क्षपकश्रेणी से प्राप्त होती है। साधक अन्तर्मुहूर्त में ही कर्मों के कलिमल को धो डालता है। इस प्रक्रिया में सबसे पहले मोह कर्म का क्षय होता है। मोहकर्म सब कर्मों का मूल है। यह कर्म ज्ञान एवं दर्शन को भी पूर्णतः प्रकट नहीं होने देता। ज्ञान के पूर्ण प्रकटीकरण के लिए मोह का क्षय आवश्यक है। दुःख से मुक्ति भी इसी के क्षय से होती है। ___उत्तराध्ययन सूत्र में प्रभु महावीर गणधर गौतम को सावधान करते हुए कहते हैं-"समयं गोयम ! मा पमायए !'"" हे गौतम! तुम समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। आचारांग में भी कहा है "धीरे मुहुत्तमवि णो पमादए"" धीर पुरुष अपने अन्तर स्वरूप को जानने हेतु क्षणभर भी प्रमाद न करे। जानने के पश्चात् तदनुरूप जीवन जीने में प्रमाद न करे। आचारांग सूत्र में बार-बार प्रमाद के त्याग एवं अप्रमाद के आचरण की प्रेरणा की गई है। प्रमत्त व्यक्ति बाहर भटकता रहता है। वह सत्य, शान्ति एवं अव्याबाध सुख को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए कहा है"अप्पमत्तो परिव्वए। 120 अप्रमत्तता क्यों? प्रमाद नहीं करने के अनेक हेतु हैं। उसका एक हेतु यह है कि यह जीवन नश्वर है। सही समझ के साथ इस जीवन का सदुपयोग कर लेना चाहिए तथा इसमें समय मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। मनुष्य श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना,
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy