SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन जैन-परम्परा को आवश्यक प्रतीत हुआ। इसलिए षड् द्रव्यों की मान्यता साकार हो गई। ___ यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय की मान्यता जैन दर्शन का अपना वैशिष्ट्य है। इनका अन्य किसी भारतीय दर्शन में निरूपण नहीं हुआ है । यद्यपि सांख्यदर्शन में मान्य प्रकृति के रजोगुण से धर्मद्रव्य का तथा तमोगुण से अधर्मद्रव्य का साम्य प्रतीत होता है, किन्तु जैन दर्शन में धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय स्वतन्त्र द्रव्य हैं, जबकि सांख्य में ये प्रकृति के स्वरूप हैं। दूसरी बात यह है कि धर्म एवं अधर्म द्रव्य लोकव्यापी हैं और तीसरी बात यह है कि सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण मिलकर कार्य करते हैं, जबकि जैन दर्शन में ये दोनों स्वतंत्ररूपेण कार्य में सहायक बनते हैं। ____ आकाश को द्रव्य रूप में प्रायः सभी दर्शनों ने स्वीकार किया है, किन्तु आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश भेद जैनेतर दर्शनों में प्राप्त नहीं होते । न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त आदि दर्शनों में 'शब्द' को आकाश द्रव्य का गुण माना गया है-'शब्दगुणकमाकाशम्',जबकि जैन दर्शन में आकाश का गुण अवगाहन करना माना गया है। शब्द को तो पुद्गल द्रव्य में सम्मिलित किया गया है। वैशेषिक दर्शन में पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन को द्रव्य माना जाता है। इनमें से आकाश, काल एवं आत्मा को तो पृथक् द्रव्य के रूप में जैन दार्शनिकों ने भी अंगीकार किया है, किन्तु पृथ्वी, अप, तेजस एवं वायु की पृथक् द्रव्यता का जैनदर्शन के अनुसार कोई औचित्य नहीं है,क्योंकि वे सजीव होने पर जीव द्रव्य में और निर्जीव होने पर पुद्गल द्रव्य में समाहित हो जाते हैं । दिशा कोई पृथक् द्रव्य नहीं है वह तो 'आकाश' की ही पर्याय है। मन को जैन दार्शनिकों ने पुद्गल में सम्मिलित किया है, क्योंकि मन पुद्गल की ही पर्याय है। आगमों में पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय का विस्तार से निरूपण मिलता है। पुद्गल द्रव्य में ‘परमाणु' का विवेचन महत्त्वपूर्ण है। परमाणु पुद्गल की सबसे छोटी स्वतंत्र इकाई है। परमाणु का जैसा वर्णन आगमों में उपलब्ध होता है वह आश्चर्यजनक है । एक परमाणु दूसरे परमाणु से आकार में तुल्य होकर भी वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श में भिन्न होता है। इनमें कोई काला, कोई नीला आदि वर्ण का
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy