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________________ 250 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन नय सिद्धान्त द्वारा विभिन्न दर्शनों में समन्वय ... जैन दर्शन की दृष्टि उदार है। नय सिद्धान्त का प्रयोग न केवल आगम वाक्यों को समझने की दृष्टि से किया गया है, अपितु इसके द्वारा अन्य भारतीय दर्शनों की विचारधारा को भी समझने का प्रयत्न किया गया है। जैन दार्शनिकों के अनुसार विभिन्न दर्शन यदि अपनी विरोधी मान्यता का अपलाप न करें तो उनकी विचारधारा एक नय का रूप ले लेती है, किन्तु ऐकान्तिक प्रतिपादन के कारण उनकी विचारधारा नय न होकर नयाभास हो जाती है। सिद्धसेनसूरि (5वीं शती) ने प्रसिद्ध भारतीय दर्शनों की तुलना विभिन्न नयों से की। उनके पश्चात् भट्ट अकलंक (8 वीं शती) ने उन दर्शनों का नयाभासों में निरूपण कर एक नये चिन्तन को जन्म दिया। किस दर्शन को किस नयाभास में रखा जाए, इस सम्बन्ध में दार्शनिकों में किंचित् मतभेद रहा। 12 वीं शती में वादिदेवसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोक में नयाभासों में न्याय-वैशेषिकादि दर्शनों की मान्यताओं के उदाहरण दिए हैं। 15 वीं शती में मल्लिषेणसूरि स्याद्वादमंजरी टीका में कहते हैं कि नैयायिक एवं वैशेषिक नैगमनय का अनुसरण करते हैं, सभी अद्वैतवादी दर्शन तथा सांख्यदर्शन संग्रह नय के अभिप्राय से प्रवृत्त हुए हैं। चार्वाक दार्शनिक व्यवहारनय का अनुसरण करते हैं। बौद्ध दार्शनिकों ने ऋजुसूत्र नय को अपनाया है तथा वैयाकरणों ने शब्दादि नयों का अवलम्बन लिया है। उपाध्याय यशोविजय (17वीं-18वीं शती) ने अध्यात्मसार में विभिन्न दर्शनों का इन नयों में समावेश करते हुए लिखा है बौद्धानामृजुसूत्रतो मतमभूद् वेदान्तिनां संग्रहात्। सांख्यानां तत एव नैगमनयाद् यौगश्च वैशेषिकः।। शब्दब्रह्मविदोऽपि शब्दनयतः सर्वैर्नयैर्गुम्फिता। जैनी दृष्टिरिति सारतरता प्रत्यक्षमुवीक्ष्यते।। -अध्यात्मसार, श्लोक 879 यशोविजय ने बौद्धमत को ऋजुसूत्र नय से, वेदान्त एवं सांख्य मत को संग्रह नय से, न्याय और वैशेषिक मत को नैगम नय से, शब्द ब्रह्मवादियों को शब्दनय से गुम्फित माना है। किन्तु ये दर्शन एकान्त रूप से अपने ही मत को सत्य
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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