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________________ नय एवं निक्षेप 245 धर्मियों में से एक को गौण एवं दूसरे को प्रधान बनाने का उदाहरण है- विषयासक्त जीव क्षणभर सुखी होता है।" उपर्युक्त उदाहरणों में दो धर्मों के अन्तर्गत चैतन्य को प्रधान एवं सत्त्व गुण को गौण बनाया गया है। दो धर्मियों के अन्तर्गत द्रव्य को गौण और वस्तु को प्रधान विवक्षित किया गया है। धर्म-धर्मी के अन्तर्गत जीव धर्मी को प्रधान तथा सुखी विशेषण (धर्म) को गौण बताया गया है। निष्कर्ष रूप में कहा जाए तो नैगम नय अत्यन्त व्यापक नय है जिसमें विविध प्रकार से ज्ञान कराने की क्षमता है। मुख्य कार्य के अंगों को भी जिस प्रकार नैगम नय से कह दिया जाता है उसी प्रकार जिसमें सामान्य-विशेष का गौण प्रधान भाव से समावेश होता है वह नैगम नय है। 2. संग्रह नय सामान्य या अभेद को ग्रहण करने वाला नय ‘संग्रह नय' है । संग्रह नय की दृष्टि से आत्मा एक है। संग्रह नय दो प्रकार का होता है- 1. पर संग्रह नय, 2. अपर संग्रह नय । सत्ता के रूप में समस्त पदार्थों का समावेश करने वाले सामान्य को ग्रहण करने वाला नय ‘पर संग्रह नय' है। जैसे- विश्व एक है। यह कथन 'पर संग्रह नय' का द्योतक है। द्रव्यत्व, पर्यायत्व आदि अवान्तर सामान्यों का ग्रहण करने वाला नय ‘अपर संग्रह नय' है । जैसे- धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव द्रव्यत्व की दृष्टि से एक हैं। 33 3. व्यवहार नय ___ भेद को ग्रहण करने वाले नय को 'व्यवहार नय' कहते हैं। जैसे-सत् या वस्तु को द्रव्य और पर्याय के रूप में अथवा जीव और अजीव के रूप में जानना 'व्यवहार नय' है । भेदपरक जितना भी ज्ञान है वह सब 'व्यवहार नय' ही है । जीव के संसारी और सिद्ध भेद, संसारी जीवों के त्रस और स्थावर भेद या नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव आदि भेद 'व्यवहार नय' से ही किए जाते हैं । 'संग्रह नय' जहाँ अनेकता में एकता का बोध कराता है, वहाँ 'व्यवहार नय' एक में अनेक का बोध कराता है। 'संग्रह नय' से आत्मा को एक तथा व्यवहार नय' से आत्मा को अनन्त कहा जाता है, क्योंकि संख्या में आत्माएँ अनन्त हैं, जबकि मूल स्वरूप की दृष्टि से वे एक हैं।
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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