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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन शल्य-विवेक, ईर्या समिति यावत् उच्चार-प्रस्रवण - खेल - जल्ल-सिंघाणपरिष्ठापनिका समिति, मनोगुप्ति यावत् कायगुप्ति । धर्मास्तिकाय के ये अभिवचन उसे धर्म के निकट ले आते हैं । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के अधर्म, प्राणातिपात अविरमण यावत् परिग्रह - अविरमण, क्रोध - अविवेक यावत् मिथ्यादर्शनशल्य अविवेक आदि अभिवचन अधर्मास्तिकाय को अधर्म या पाप के निकट ले आते हैं । आकाशास्तिकाय के गगन, नभ, सम, विषम आदि अनेक अभिवचन हैं । जीवास्तिकाय के अभिवचनों में जीव, प्राण, भूत, सत्त्व, चेता, आत्मा आदि के साथ पुद्गल को भी लिया गया है, जो यह सिद्ध करता है कि पुद्गल शब्द का प्रयोग प्राचीनकाल में जीव के लिए भी होता रहा है । बौद्धग्रन्थों में पुद्गल शब्द जीव के लिए ही प्रयुक्त हुआ है। पुद्गलास्तिकाय के अनेक अभिवचन हैं, यथा- पुद्गल, परमाणु- पुद्गल, द्विप्रदेशी यावत् संख्यात प्रदेशी, असंख्यात प्रदेशी, अनन्त प्रदेशी आदि । " 19 काल की द्रव्यता 8 पंचास्तिकाय के अतिरिक्त काल को द्रव्य मानने के संबंध में जैनाचार्यो में मतभेद रहा है । इस मतभेद का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्रकार उमास्वाति (उमास्वामी) ने 'कालश्चेत्येके' सूत्र के द्वारा किया है । आगम में भी दोनों प्रकार की मान्यता के बीज उपलब्ध होते हैं । उदाहरणार्थ भगवान महावीर से प्रश्न किया गया - किमिदं भंते! काले त्ति पवुच्चति ? भगवन्! काल किसे कहा गया है ? भगवान् ने उत्तर दिया- जीवा चेव अजीवा चेव त्ति । अर्थात् काल को जीव और अजीव कहा गया है । इसका तात्पर्य है कि काल जीव और अजीव की पर्याय ही है, भिन्न द्रव्य नहीं । यह कथन एक अपेक्षा से समीचीन है । 'लोकप्रकाश' नामक ग्रन्थ में उपाध्याय विनयविजय (17वीं शती) ने इस आगमवाक्य के आधार पर तर्क उपस्थित किया है कि वर्तना आदि पर्यायों को यदि द्रव्य माना गया तो अनवस्था दोष आ जायेगा । अतः पर्यायरूप काल पृथक् द्रव्य नहीं बन सकता है । 20 विनयविजय ने इस मान्यता का खण्डन कर काल द्रव्य की स्थापना भी की है । आगम में 'अद्धासमय' के रूप में काल द्रव्य का विवेचन प्राप्त होता है, अतः लोकप्रकाश में काल को पृथक् द्रव्य सिद्ध करने हेतु तर्क उपस्थापित करते हुए कहा गया है -
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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