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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन परिक्षेपी । शब्द नय के तीन प्रकार हैं- शब्द, समभिरूढ तथा एवंभूत नय । दिगम्बर परम्परा में मान्य तत्त्वार्थसूत्र के पाठ में एक साथ सात नयों का उल्लेख हुआ है, यथा - नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्र - शब्दसमभिरूढैवंभूता नयाः (सर्वार्थसिद्धि 1.33)। श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों पाठों का समन्वय करके कहा जा सकता है कि आचार्य उमास्वाति को सात नय मान्य थे। सन्मतितर्क नामक ग्रन्थ में सिद्धसेन सूरि ने नैगम को छोड़कर अन्य छह नयों का कथन किया है। उन्होंने नैगमनय की सामान्यग्राहिता को संग्रहनय में तथा विशेष - ग्राहिता को व्यवहारनय में समाविष्ट कर लिया है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में निश्चय नय एवं व्यवहार नय शब्दों का प्रयोग हुआ है । वहाँ पर भ्रमर में व्यवहार नय से कृष्ण वर्ण तथा निश्चय नय से कृष्ण, नील, पीत, रक्त एवं श्वेत ये पांचों वर्ण स्वीकार किये गये हैं।” आगे चलकर आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इन दोनों नयों का आत्म-विवेचन की दृष्टि से भरपूर प्रयोग हुआ है। वे कहते हैं कि गन्ध, रस, स्पर्श, रूप, देह और संस्थान आदि जीव में व्यवहारनय से हैं, निश्चयनय से नहीं । ' 18 240 नयों का आश्रय लेकर ईस्वीय 5 वीं शती में मल्लवादी क्षमाश्रमण के द्वारा एक महत्त्वपूर्णग्रन्थ द्वादशारनयचक्र की रचना की गई। इस ग्रन्थ में उस समय प्रचलित विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं को बारह अरों से युक्त नयचक्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। मल्लवादी ने नय विचार को एकचक्र का स्वरूप प्रदान किया है। उन्होंने सात नयों के स्थान पर 12 नयों की कल्पना की है तथा उन्हें इस रूप में प्रस्तुत किया है कि प्रथम नय से प्रतिपादित दार्शनिक विचारधाराओं का द्वितीय नय से निरसन हो जाता है। इस प्रकार हर नयचक्र में यह क्रम चलता रहता है । अन्त में 12 वें अर का प्रथम अर के द्वारा खण्डन होता है । जिस प्रकार चक्र के अरे एक केन्द्र में संलग्न होते हैं उसी प्रकार ये सभी नय स्याद्वाद या अनेकान्त रूप केन्द्र से संलग्न हैं। उनके द्वारा प्रतिपादित द्वादश नय इस प्रकार हैं- 1. विधि, 2. विधि-विधि, 3. विध्युभय, 4. विधि का नियम, 5. विधि और नियम, विधिनियमविधि, 7. उभयोभय, 8. उभयनियम, 9. नियम, 10. नियमविधि, 11. नियमोभय, 12. नियम - नियम । ये बारह नय द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों से किस प्रकार सम्बद्ध हैं, इसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य मल्लवादी कहते हैं कि 6.
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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