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________________ 234 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन अनेकान्तवाद, स्याद्वाद एवं नयवाद में भेद अनेकान्तवाद एवं नयवाद में अन्तर है। वस्तु अनेकधर्मात्मक या अनन्तधर्मात्मक है यह मान्यता अनेकान्तवाद है तथा उस वस्तु का विभिन्न दृष्टिकोणों से ज्ञान करना नय है। अनेकान्त की मान्यता नय सिद्धान्त पर टिकी हैणयमूले अणेयन्तो (नयचक्र, माइल्लधवल, गाथा, 175)। ‘स्याद्वाद' कथन की शैली है। वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता का स्यात्पूर्वक कथन करना स्याद्वाद कहलाता है। आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद से प्रविभवत अर्थ-विशेष के अभिव्यंजक को नय कहा है। अतः अनेकान्तवाद, नयवाद एवं स्याद्वाद तीनों सिद्धान्त सूक्ष्मभेद के साथ परस्पर सम्बद्ध हैं। नय की उपयोगिता तीर्थंकरों के द्वारा कही गई वाणी हमारे लिए श्रुतज्ञान का साधन है। अतः उनके द्वारा कथित, गणधरों एवं आचार्यों द्वारा प्रस्तुत कथनों या वाक्यों को भी उपचार से श्रुतज्ञान कहा जाता है। ये वाक्य किसी नय से कहे गए हैं, अतः इन वाक्यों का सही अर्थ समझने के लिए नय सिद्धान्त की उपयोगिता है। जिनभद्रगणि कहते हैं कि आगम का एक भी सूत्र और अर्थ ऐसा नहीं है जो नयशून्य हो।' माइल्लधवल ने नय का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा है जे णयदिट्ठिविहीणा ताण ण वत्थुसहावउवलद्धी। वत्थुसहावविहूणा सम्मादिट्ठी कहं हुति।। __द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 181 जो नय दृष्टिविहीन हैं, उन्हें वस्तुस्वरूप का बोध नहीं हो सकता और जिन्हें वस्तुस्वरूप का बोध नहीं है, वे सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं? इसका तात्पर्य है कि नयदृष्टि की भूमिका पर ही वस्तु स्वरूप का बोध होता है एवं वस्तु स्वरूप का बोध सम्यक्त्व की प्राप्ति कराता है। इससे ज्ञात होता है कि नय का प्ररूपण मूलतः आगम-वाक्यों का सही अर्थ समझने के लिए हुआ, किन्तु उत्तरकालीन आचार्यों एवं दार्शनिकों के द्वारा साधारण लोगों की भाषा में प्रयुक्त वाक्यों में भी नयदृष्टि का प्रयोग दिखाया जाने लगा। नैगमादि नयों के लिए प्रदत्त उदाहरण इस तथ्य की सिद्धि करते हैं, जिनका
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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