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________________ जैन प्रमाणशास्त्र में अवग्रह का स्थान 223 अर्थावग्रह का ही व्यवहार करते हैं। नैश्चयिक अर्थावग्रह के पश्चात् ईहा द्वारा ज्ञात वस्तु-विशेष का जो अपाय ज्ञान होता है वह पुनः होने वाली ईहा एवं अपाय की अपेक्षा से उपचरित अर्थावग्रह कहलाता है। अपाय ज्ञान भी विशेष का आकांक्षी होता है। विशेष के ज्ञान की आकांक्षा के कारण वह अपायज्ञान सामान्य को ग्रहण करता है। सामान्य को ग्रहण करने के कारण यह (अपाय) अर्थावग्रह माना जाता है। सामान्य एवं विशेष का व्यवहार तब सापेक्षिक होता है। अवान्तर विशेष की अपेक्षा से पूर्व अपायज्ञान भी इस प्रकार सामान्यग्राही होने के कारण अर्थावग्रह होता है। यह उपचरित अर्थावग्रह कहलाता है। यह उपचरित अर्थावग्रह निर्णयात्मक एवं विशद होता है, इसमें संदेह को अवकाश नहीं है। स्व एवं पर का निर्णयात्मक होने के कारण यह प्रमाण एवं विशद होने के कारण प्रत्यक्ष प्रमाण सिद्ध होता है। इस उपचरित अर्थावग्रह में अर्थावग्रह के बहु, बहुविध आदि 12 भेद भी घटित हो सकते हैं। अकलक आदि दार्शनिकों के मत में जो अर्थावग्रह है वह तो निर्णयात्मक होने के कारण प्रमाण माना ही जाता है, किन्तु वहाँ पर अर्थावग्रह का काल एक समय का है, यह आगम-मान्यता खण्डित हो जाती है। क्योंकि एक समय में निर्णयात्मक ज्ञान का होना शक्य नहीं है। फिर भी विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, देवसूरि आदि दार्शनिकों ने अवग्रह को प्रमाण माना ही है। आचार्य विद्यानन्द अवग्रह को संवादक होने के कारण भी प्रमाण सिद्ध करते हैं। अवग्रह में प्रमाणता सिद्ध करने के लिए वे तर्क देते हैं- अवग्रह प्रमाण है, क्योंकि वह संवादक है, साधकतम है, अनिश्चित अर्थ का निश्चायक है और प्रतिपत्ता को उसकी अपेक्षा रहती है । अवग्रह को प्रमाण मानने का साक्षात् फल है स्व एवं अर्थ का व्यवसाय । इसका परम्पराफल तो ईहा एवं हानादि बुद्धि का होना है। इस प्रकार आचार्य विद्यानन्द ने अवग्रह में प्रमाणता सिद्ध करने के लिए अनेक हेतु उपस्थित किए हैं । ये हेतु अवग्रह के निश्चयात्मक रूप को प्रस्तुत करते हैं । निश्चयात्मकता के साथ उन्होंने स्पष्टता भी अङ्गीकार की है। यथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में - तन्निर्णयात्मकः सिद्धोऽवग्रहो वस्तुगोचरः। स्पष्टाभोऽक्षबलोद्भूतोऽस्पष्टो व्यंजनगोचरः ॥
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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