SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन तिर्यंचयोनिक हैं, असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यन्तर हैं, असंख्यात ज्योतिष्क देव है, असंख्यात वैमानिक देव हैं, अनन्त सिद्ध हैं। इस प्रकार हे गौतम! जीवपर्याय संख्यात और असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त हैं।" धर्मास्तिकाय गति परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की गति में सहायक होता है। अधर्मास्तिकाय स्थिति परिणाम वाले जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहकारी होता है। आकाशास्तिकाय अन्य सभी द्रव्यों/अस्तिकायों को स्थान/ अवकाश देता है। जीवास्तिकाय चेतनागुण या उपयोगगुण वाला होता है। पुद्गलास्तिकाय वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श वाला होता है । शब्द, बंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान, भेद, अंधकार, छाया, आतप, उद्योत वाले द्रव्य भी पुद्गल होते हैं। काल वर्तना लक्षण वाला है। इनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय अजीवकाय हैं तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय अरूपीकाय हैं, क्योंकि इनमें वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श नहीं हैं। प्रदेश की अपेक्षा धर्म, अधर्म एवं एक जीव द्रव्य में असंख्यात प्रदेश माने गए हैं तथा आकाश में अनन्त प्रदेश कहे गए हैं। पुद्गल में संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेश हैं । पुद्गल परमाणु एक प्रदेशी होकर भी अनेक स्कन्ध रूप बहु प्रदेशों को ग्रहण करने की योग्यता रखता है । गुरुलघुत्व की अपेक्षा से पुद्गलास्तिकाय गुरु लघु भी है और अगुरुलघु भी, किन्तु धर्मास्तिकाय आदि शेष चार अगुरुलघु हैं। षड्द्रव्यों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय द्रव्य की दृष्टि से तुल्य हैं तथा सबसे अल्प हैं । उनसे जीवास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं ।जीवास्तिकाय से पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं और पुद्गलास्तिकाय से अद्धासमय द्रव्य की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं।" ___ संख्या का यह निर्देश इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि अस्तिकाय एवं द्रव्य में भिन्नता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय में द्रव्य एवं अस्तिकाय की दृष्टि से समानता है, क्योंकि वे अस्तिकाय की दृष्टि से भी एक-एक हैं तथा द्रव्य की दृष्टि से भी एक-एक हैं । जीवास्तिकाय को द्रव्य की दृष्टि से
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy