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________________ जैन प्रमाणशास्त्र में अवग्रह का स्थान 213 अवायज्ञान और धारणाज्ञान में इस प्रकार निश्चयात्मकता निर्विवाद है, किन्तु अवग्रह एवं ईहा ज्ञान की निश्चयात्मकता विवाद का विषय है। श्वेताम्बर आगम-परम्परा के अनुयायी जिनभद्र आदि दार्शनिक अवग्रह और ईहाज्ञान में निश्चयात्मकता अङ्गीकार नहीं करते हैं, किन्तु प्रमाणशास्त्र के अनुयायी अकलक आदि दिगम्बर दार्शनिक तथा वादी देवसूरि आदि कुछ श्वेताम्बर दार्शनिक अवग्रह और ईहा ज्ञान को प्रमाण बतलाने के लिए उनमें निश्चयात्मकता स्वीकार करते हैं। प्रस्तुत शोध लेख में अवग्रह के स्वरूप का विवेचन कर यह विचार किया जाएगा कि अवग्रह में प्रमाण-लक्षण घटित होता है या नहीं । अवग्रह के साथ दर्शन का भी प्रश्न जुड़ा हुआ है । ईहा ज्ञान की चर्चा यहाँ अधिक नहीं की जाएगी, क्योंकि ईहाज्ञान तो अवग्रह के आश्रित है। यदि अवग्रह में प्रामाण्य सिद्ध हो जाता है तो ईहा में तो स्वतः सिद्ध हो जाएगा। अवग्रह के दो भेदः व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह आगमों में अवग्रह के दो भेद निरूपित हैं- व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह। स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्रेन्द्रिय से गृहीत होने के कारण व्यंजनावग्रह चार प्रकार का होता है। चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता है, क्योंकि ये दोनों इन्द्रियाँ अप्राप्यकारी हैं। जो इन्द्रियाँ विषय से संयुक्त या स्पृष्ट होकर ज्ञान की साधन बनती हैं वे प्राप्यकारी कहलाती हैं। स्पर्शन आदि पूर्वोक्त चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं । अर्थावग्रह छह प्रकार का वर्णित है, क्योंकि यह सभी इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रियों और मन) से होता है। अप्राप्यकारी चक्षु एवं मन से भी अर्थावग्रह होता है, यह तात्पर्य है। व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह के सम्बन्ध में यह मत निर्विवाद है कि व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता है तथा अर्थावग्रह सभी इन्द्रियों से होता है, किन्तु इन दोनों के स्वरूप को लेकर अनेक मतभेद हैं। व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह के स्वरूप में मतभेद व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह के स्वरूप को लेकर जैनदर्शन में प्रमुख रूप से तीन मत हैं
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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