SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 204 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन अभिधेय वस्तु को यथावस्थित (जो जैसी है, उसे वैसे ही) रूप से जानता है तथा जैसा जानता है, उसे वैसा कहता है- वह आप्त है।" आप्त पुरुष लौकिक भी हो सकता है और लोकोत्तर भी। माता-पिता, गुरुजन, सन्त आदि लौकिक आप्त पुरुष हैं तथा तीर्थकर, अर्हन्त आदि लोकोत्तर आप्त हैं । आप्त पुरुष के वचनों से वस्तु का यथार्थ ज्ञान या सम्यग्ज्ञान होता है, इसलिए उनके वचनों को उपचार से प्रमाण माना गया है । जैनागम प्रमाण हैं, क्योंकि वे अर्हन्त प्रभु (आप्त) की वाणी हैं। आगम-प्रमाण श्रुतज्ञान है। यहाँ पर कहना होगा कि जैनदर्शन में मतिज्ञान के आधार पर जहाँ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमान-प्रमाण का प्रतिपादन हुआ है, वहाँ श्रुतज्ञान के आधार पर मात्र आगम-प्रमाण का निरूपण हुआ है। प्रमेय 'प्रमातुं योग्यं प्रमेयम्' अर्थात् जो जानने योग्य है अथवा सिद्ध करने योग्य है, वह प्रमेय है। 'प्र+मा+यत्' पूर्वक प्रमेय शब्द निष्पन्न हुआ है जो ज्ञेय का अर्थ भी देता है, किन्तु खास बात यह है कि प्रमेय ज्ञेय होकर भी हेय एवं उपादेय हो सकता ___ संसार की प्रत्येक वस्तु प्रमेय है, और वे वस्तुएँ संख्या में अनन्त हैं। प्रत्येक वस्तु में अनन्त-गुण धर्म हैं, जिनके कारण जैन दार्शनिकों ने समस्त प्रमेयों को अनेकान्तात्मक कहा है । वह अनेकान्तात्मक प्रमेय सामान्य-विशेषात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक, नित्यानित्यात्मक, एकानेकात्मक आदि रूपों में जाना जाता है । जैन दर्शन में प्रत्येक वस्तु द्रव्य एवं पर्याय से युक्त मानी गयी है। द्रव्य सदा बना रहता है एवं उसकी पर्याय निरन्तर बदलती रहती है । पर्याय का उत्पाद एवं व्यय होता रहता है, द्रव्य ध्रुव रहता है । इस तरह वस्तु को जैन दर्शन उत्पाद, व्यय एवं धौव्य से युक्त भी कहता है । द्रव्य से नित्य बने रहने एवं पर्याय के बदलते रहने के कारण वस्तु को नित्यानित्यात्मक भी स्वीकार किया गया है। जैन दार्शनिक वस्तु की सदृशता एवं भिन्नता के आधार पर उसे सामान्य-विशेषात्मक भी प्रतिपादित करते हैं । एक वस्तु के जो धर्म अन्य वस्तुओं से अथवा उसी वस्तु की पूर्व एवं उत्तर पर्याय से सादृश्य रखते हैं, वे सामान्य तथा जो धर्म अन्य वस्तुओं से अथवा उस
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy