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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन किया गया है । इसका तात्पर्य है कि 'अस्तिकाय' जहाँ तीनों कालों में रहने वाली अखण्ड प्रचयात्मक राशि का बोधक है, वहाँ द्रव्य शब्द के द्वारा उस अस्तिकाय के खण्डों का भी ग्रहण हो जाता है । इनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय तो अखण्ड ही रहते हैं, उनके कल्पित खण्ड ही हो सकते हैं, वास्तविक नहीं, जबकि जीवास्तिकाय में अनन्त जीव द्रव्य और पुद्गलास्तिकाय में अनन्त पुद्गल द्रव्य अपने अस्तिकाय के खण्ड होकर भी अपने आप में स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में रहते हैं। नाम से वे सभी जीव जीवद्रव्य एवं सभी पुद्गल पुद्गलद्रव्य कहे जाते हैं। अनुयोगद्वारसूत्र में द्रव्य नाम छह प्रकार का प्रतिपादित है- 1.धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. आकाशास्तिकाय, 4. जीवास्तिकाय, 5. पुद्गलास्तिकाय और 6. अद्धासमय (काल)।' पुद्गलास्तिकाय के एक प्रदेश अर्थात् परमाणु को कथंचित् द्रव्य, कथंचित् द्रव्यदेश कहा गया है। इसी प्रकार दो प्रदेशों को कथंचित् द्रव्य, कथंचित् अनेक द्रव्य और अनेक द्रव्यदेश कहा गया है । इसी प्रकार तीन, चार, पाँच, यावत् असंख्यात एवं अनन्त प्रदेशों के संबंध में कथन करते हुए उन्हें एक द्रव्य एवं द्रव्यदेश, अनेक द्रव्य एवं अनेक द्रव्यदेश कहा गया है। पाँच अस्तिकायों में आकाश सबका आधार है । आकाश ही अन्य अस्तिकायों को स्थान देता है । आकाशास्तिकाय लोक एवं अलोक में व्याप्त है, जबकि अन्य चार अस्तिकाय लोकव्यापी हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय से पूरा लोक स्पृष्ट है।" द्रव्य का विभाजन आगमों में षड्द्रव्यों के अतिरिक्त जीव एवं अजीव के रूप में भी किया गया है, यथा कइविहाणंभंते!दव्वापण्णत्ता? गोयमादुविहादव्वापण्णत्ता, तंजहा-जीवदव्वायअजीवदव्वाय।" भगवन्! द्रव्य कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं - जीव द्रव्य और अजीव द्रव्या
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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