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________________ जैन न्याय में प्रमाण - विवेचन 201 जहाँ हेतु का अन्यथानुपपन्नत्व लक्षण है, वहाँ सपक्षसत्व आदि तीन लक्षणों का क्या औचित्य है? जहाँ अन्यथानुपपत्व लक्षण नहीं है, वहाँ भी तीन लक्षणों का कोई औचित्य नहीं। साध्य किसे कहा जाय ? साधारण रूप से हम जिसे सिद्ध करना चाहते हैं, उसे साध्य कहते हैं, किन्तु प्रमाण - चिन्तक जैन दार्शनिक उसकी तीन विशेषताओं का उल्लेख करते हैं- 1. वह असिद्ध या अज्ञात होना चाहिए, ज्ञात हो जाने अर्थात् सिद्ध हो जाने पर उसे साध्य नहीं कहा जा सकता; 2. प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से वह बाधित नहीं होना चाहिए, जैसे अग्नि में शीतलता सिद्ध करना प्रत्यक्ष से बाधित है, अतः शीतलता साध्य नहीं हो सकती; 3. प्रमाता का उसे सिद्ध करना अभीष्ट होना चाहिए- इन तीन विशेषताओं से युक्त साध्य को ही हेतु के द्वारा सिद्ध किया जाता है 1 32 तीसरा जो महत्त्वपूर्ण घटक है, वह है साध्य एवं हेतु में व्याप्ति - सम्बन्ध । न्यायदार्शनिक हेतु एवं साध्य के साहचर्य नियम को अथवा हेतु एवं साध्य के स्वाभाविक सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं । 30 जैन दार्शनिकों ने अविनाभाव नियम को व्याप्ति कहा है। सिद्धसेन, अकलङ्क, विद्यानन्द आदि दार्शनिकों के हेतु लक्षण का अध्ययन करने से विदित होता है कि वे साध्य एवं हेतु के अविनाभाव नियम को ही व्याप्ति मानते हैं। 3166 यह इसके होने पर ही होता है, इसके नहीं होने पर नहीं होता।" इस प्रकार साध्य के होने पर ही हेतु का होना तथा साध्याभाव में हेतु का न होना ही व्याप्ति है, ऐसा लक्षण माणिक्यनन्दि ने दिया है। ” वादिदेवसूरि ने साध्य एवं साधन के त्रैकालिक सम्बन्ध को व्याप्ति माना है । जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है - यह व्याप्ति का एक रूप है तथा जहाँ अग्नि नहीं होती, वहाँ धूम नहीं होता, यह व्याप्ति का दूसरा रूप है। इन दोनों को अविनाभावनियम रूप व्याप्ति से फलित किया जाता है। जैन दर्शन के हेतु - लक्षण में भी इस अविनाभाव को स्वीकार किया गया है, क्योंकि हेतु के लक्षण में उसकी साध्य के साथ व्याप्ति को स्थापित करना आवश्यक है । व्याप्ति को जैन दर्शनिकों ने अन्तर्व्याप्ति और बहिर्व्याप्ति के भेद से दो प्रकार का बतलाया है । जिस पक्ष (साध्यदेश) में हेतु से साध्य को सिद्ध किया जाय और हेतु की उस साध्य से व्याप्ति 33 I
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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