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________________ जैन न्याय में प्रमाण-विवेचन भारतीय दर्शन-परम्परा का एक आयाम है- प्रमाणविद्या । वस्तुओं को एवं अपने को सम्यक् रूप से जानने की विद्या ही प्रमाण विद्या है। इस विद्या को पाश्चात्त्य दार्शनिक 'एपिस्टिमोलॉजी' कहते हैं । इस विद्या के अन्तर्गत इन्द्रियों से होने वाला ज्ञान भी समाहित है तो अनुमान, आप्त पुरुषों के वचन आदि से होने वाला ज्ञान भी सम्मिलित है । यह ज्ञान ही हमारे जीवन-व्यवहार में उपयोगी होता है। इसलिए प्रमाणविद्या दैनिक जीवन-व्यवहार से जुड़ी हुई विद्या है। इस विद्या का प्रयोग जीवन में प्राचीन काल से अथवा कहें तो अनादि से होता आया है, फिर भी इस पर अनेक भारतीय दार्शनिकों ने विचार कर इस विद्या को एक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया है। जैनदर्शन में भी प्रमाणविद्या पर गहन विचार हुआ है। इसमें आगमों में प्रतिपादित मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान के आधार पर प्रमाण-विद्या का व्यवस्थापन किया गया है । जैन दर्शन में स्व एवं पर के निश्चयात्मक ज्ञान को ही प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित कर उसके दो प्रकार प्रतिपादित किए गए हैं- 1. प्रत्यक्ष एवं 2. परोक्ष। तत्त्वार्थसूत्रकार ने मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान को परोक्ष प्रमाण में तथा अवधि, मनःपर्याय एवं केवलज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण के अन्तर्गत रखा है। आगे चलकर जिनभद्रगणि एवं भट्ट अकलक ने इन्द्रिय एवं मन से होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कह कर उसे भी प्रत्यक्ष प्रमाण की कोटि में रख दिया। अवधि, मनःपर्याय एवं केवलज्ञान को तब मुख्य या पारमार्थिक प्रत्यक्ष नाम दिया गया। भट्ट अकलक ने मतिज्ञान के ही स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमान को प्रमाण की कोटि में रखकर उन्हें परोक्ष प्रमाण कहा तथा श्रुतज्ञान को भी आगम प्रमाण के नाम से परोक्ष प्रमाण में ही सम्मिलित किया। इस प्रकार जैन दर्शन में प्रमाणविद्या का विकास होता रहा। अन्य भारतीय दार्शनिक चिन्तकों के साथ भी जैन दार्शनिकों का संवाद हुआ, जिससे यह विद्या निरन्तर विकसित होती रही। प्रमाणविद्या में सम्यक्तया जानने योग्य पदार्थ को 'प्रमेय', जानने के साधन को 'प्रमाण', जानने वाले को 'प्रमाता' तथा प्रमेय के ज्ञान को 'प्रमा' अथवा 'प्रमिति' कहा जाता है। प्रमाणों के द्वारा प्रमेय पदार्थ की परीक्षा करने को 'न्याय' कहते हैं।' न्यायालयों में किए जाने वाले न्याय में भी प्रमाणों (साक्षी, प्रूफ आदि) के आधार पर
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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