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________________ 173 सम्यग्दर्शन पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल तक मिथ्यात्व मोहनीय का कोई दलिक उदय में नहीं रहता है। फलतः औपशमिक सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है। औपशमिक सम्यक्त्व में जीव शान्ति, स्थिरता और पूर्ण आनन्द का अनुभव करता है । इसे प्रथमोपशम सम्यक्त्व कहा जाता है। यथाप्रवृत्तिकरण आदि त्रिविध करण औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए आवश्यक होते हैं। औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करने वाला जीव मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है - शुद्ध, अर्द्ध शुद्ध और अशुद्ध । औपशमिक सम्यक्त्व का अन्तर्मुहूर्त काल पूर्ण होने पर जीव की तीन अवस्थाएँ हो सकती हैं। परिणामों की शुद्धता रहने पर शुद्ध पुंज उदय में आता है, जिससे सम्यक्त्व का घात नहीं होता है एवं जो सम्यक्त्व प्रकट होता है उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है । जीव के परिणाम अर्द्ध विशुद्ध रहने पर दूसरे पुंज का उदय रहता है, तब जीव मिश्र दृष्टि कहलाता है। परिणामों के अशुद्ध होने पर अशुद्ध पुंज का उदय होता है, फलतः पुनः जीव मिथ्यादृष्टि हो जाता है। सम्यक्त्व के प्रकार सम्यग्दर्शन कैसा एवं कितने काल के लिए हुआ है, इसका भी बड़ा महत्त्व है। यदि सम्यग्दर्शन क्षायिक हुआ है तो वह एक बार होने के कभी समाप्त पश्चात् नहीं होता। ऐसे सम्यग्दर्शन को प्राप्त मनुष्य ने यदि सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से पूर्व अगले भव का आयुष्य नहीं बांधा है तो वह उसी भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यदि आयुष्य बांध लिया है तो तीन या चार भवों में अवश्य ही मोक्ष प्राप्त हो जाता है। क्षायिक सम्यग्दर्शन अत्यन्त निर्मल होता है तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क एवं दर्शन मोह की तीन प्रकृतियों का क्षय होने पर प्रकट होता है। औपशमिक सम्यग्दर्शन अनन्तानुबन्धी चतुष्क एवं दर्शनमोह की तीनों प्रकृतियों का उपशम होने पर प्रकट होता है । औपशमिक में भी क्षायिक सम्यग्दर्शन की भांति निर्मलता रहती है, किन्तु इसमें अनन्तानुबन्धी आदि सातों प्रकृतियाँ सत्ता में बनी रहती हैं, जो पुनः प्रकट हो जाती हैं, जबकि क्षायिक सम्यग्दर्शन में इनका पूर्णतः क्षय हो जाता है। इन दोनों के भेद को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। एक गिलास में पानी मिट्टी से गंदला हो तथा फिटकरी आदि का प्रयोग करने पर
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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