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________________ 170 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन कारण है। इस प्रकार यथार्थ का बोध एवं उस पर श्रद्धान रूप सम्यग्दर्शन निसर्ग से अर्थात् स्वतः होने वाला सम्यग्दर्शन है। कभी गुरु आदि के उपदेश से एवं शास्त्र से भी संसार की अनित्यता, अशरणता, दुःखशीलता आदि का बोध एवं श्रद्धान होता है, वह अधिगमज सम्यग्दर्शन है। आगम में ऐसे अनेक वाक्य प्राप्त होते हैं, जो व्यक्ति को संसार से विरक्त करते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है इमंसरीरं अणिच्चं, असुइं असुइसंभवं। असासयावासमिणंदुक्खकेसाणभायणं।।" यह शरीर अनित्य है, अशुचि है तथा अशुचि में उत्पन्न है। यह अशाश्वत है तथा दुःख एवं क्लेशों का भाजन है। इस प्रकार का यह आगम वाक्य शरीर के प्रति आसक्ति को तोड़ने के लिए प्रेरित करता है। शरीर से आसक्ति टूटेगी तो दृष्टि का सम्यक् होना सम्भव है। अथवा कहें कि दृष्टि सम्यक् हो जाएगी तो आसक्ति का टूटना शक्य है। इसी प्रकार महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक का वचन है एगो मेसासओअप्पा, नाणदंसणसंजुओ। सेसामेबाहिराभावा, सव्वेसंजोगलक्खणा।।" ज्ञानदर्शनमय एक शाश्वत आत्मा ही मेरी है, शेष सब पदार्थ बाहरी है एवं संयोग लक्षण वाले हैं। यह कथन आत्मा एवं उससे इतर पदार्थों में भेदज्ञान कराने के लिए अधिगम का कार्य करता है। ___ श्रीमद् राजचन्द्र का कथन 'मेरा सो जावे नहीं, जावे सो मेरा नहीं।' भी जीवन को एक दृष्टि प्रदान करता है कि जो नश्वर है वह वस्तु जाएगी ही, उसके प्रति मोह ममत्व करना उचित नहीं। वह मेरे लाख चाहने एवं प्रयत्न करने पर भी छूट जाएगी, अतः उसके जाने से दुःखी होना उचित नहीं। इस तरह यह वाक्य आत्मा एवं आत्मेतर पदार्थों में भेदज्ञान करने का सूत्र प्रदान करता है। ___ जो सम्यग्दृष्टि होना चाहता है, उसके लिए प्राथमिक उपाय यही है कि वह जिनेन्द्रों के द्वारा प्ररूपित तत्त्व को निश्शंकतापूर्वक स्वीकार करे। जिन्होंने सम्यग्दर्शन के माध्यम से सम्यक् पथ को अपनाया है तथा समस्त राग-द्वेषादि शत्रुओं को जीतकर केवलज्ञान केवलदर्शन की प्राप्ति की है, उनके वचनों पर
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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