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________________ श्रुतज्ञान का स्वरूप 163 ___ ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क-369, लाखाबावल, सौराष्ट्र, सन् 2000, सूत्र 1.20 पृ. 103 17. णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ।- समयसार, गाथा 10 18. सर्वज्ञप्रणीतत्वादानन्त्याच्च ज्ञेयस्य श्रुतज्ञानं मतिज्ञानान्महाविषयम्। - सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, 1.20 19. सम्यग्दर्शनपरिगृहीतं मत्यादि ज्ञानं भवत्यन्यथाऽज्ञानमेवेति। - तत्त्वार्थभाष्य 1.32 20. द्रष्टव्य, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 110 से 117 21. बन्ध तत्त्व, पूर्वोक्त, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, 2010, पृ. 9-10, भावार्थ द्रष्टव्य। 22. जैनदर्शन में श्रद्धा (सम्यग्दर्शन), मतिज्ञान और केवलज्ञान की विभावना, संस्कृत-संस्कृति ग्रन्थमाला 8, अहमदाबाद, 2003 पृ. 37 23. बन्ध तत्त्व, पूर्वोक्त, पृ. 16 24. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 81 पर हेमचन्द्र वृत्ति। 25. Jinvani, Samyag Jñāna Pracharak Mandal, Jaipur, ISSN 2249-2011, ___July 2013,p.49 26. तत्त्वार्थसूत्र, 2.22 27. समणसुत्तं, गाथा 252 से 253 28. आचारांगसूत्र 1.5.5 सूत्र 177 29. षट्खण्डागम, धवलाटीका, पुस्तक 13, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर सूत्र 5.5.48 पृ. 262 30. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा 320 31. सव्वजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुग्घाडियओ- विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 458 की बृहवृत्ति एवं गाथा 492 की बृहवृत्ति। 32. द्रष्टव्य- विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 492 की बृहद्वृत्ति । 33. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 99 का अन्तिम पाद 34. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 98 पर वृहवृत्ति 35. नियमा सुयं तु जीवो, जीवे भयणा उ तीसु ठाणेसु। सुयनाणी सुय अन्नाणी, केवलनाणी व सो होज्जा ।।- बृहत्कल्पभाष्य, गाथा 139 36. गीयत्थो---अकेवली वि केवलीव भवति । अहवा केवली तिविधो---सुयकेवली अवधिकेवली केवलिकेवली।- निशीथ भाष्य 4820 की चूर्णि 37. मा एवमसग्गाहं गिण्हसु गिण्हसु सुयं तइयचक्टुं -- सूक्ष्मव्यवहितादिष्वतीन्द्रियार्थेषु तृतीयचक्षुः । - बृहत्कल्पभाष्य 1154 की वृत्ति
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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