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________________ 144 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन ज्ञान का ग्रहण। इन चार कारणों के अतिरिक्त न्यूनाधिक रूप से दोनों ग्रन्थों में निरूपित कारणों में समानता है। तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ आचार्य की भक्ति का उल्लेख है वहाँ ज्ञाताधर्मकथा में गुरु की भक्ति का उल्लेख है। दोनों ग्रन्थों में प्रतिपादित ये बोल भक्ति, श्रद्धा एवं मोक्षरुचि वाले सम्यग्दर्शनी मनुष्य को ही तीर्थकर प्रकृति के अर्जन का पात्र मानते हैं। आवश्यकनियुक्ति में स्पष्ट कहा गया है कि मनुष्यगति का जीव शुभ लेश्या वाला होकर इन बीस बोलों में से किसी का भी सेवन करता है तो वह तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन करता है। तीर्थकर प्रकृतिःसामान्य नियम ___ कर्म-सिद्धान्त के अनुसार भी जो सम्यग्दर्शन की अवस्था वाला मनुष्य है, वही तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ करता है। अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर नामक आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक तीर्थकर प्रकृति (जिननाम) का बन्ध होता है। इस प्रकृति का उदय तेरहवें सयोगी केवली एवं चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान में होता है। केवलज्ञान की प्राप्ति के साथ ही तीर्थंकर नामकर्म का उदय प्रारम्भ हो जाता है, जो चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक रहता है। तीर्थंकर प्रकृति की उदीरणा होना भी सम्भव है। यह उदीरणा मात्र 13 वें गुणस्थान में होती है। सत्ता की दृष्टि से विचार किया जाये, तो इस प्रकृति की सत्ता प्रायः चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक रहती है," किन्तु एक अपवाद के रूप में बद्धनरकायु की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त के लिए मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान में भी तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता पायी जाती है।" बन्ध-विषयक विचार प्रश्न यह होता है कि तीर्थकर प्रकृति किस प्रकार के सम्यग्दर्शन में बँधना प्रारम्भ होती है? सम्यग्दर्शन के मुख्यतः तीन प्रकार हैं- क्षायोपशमिक, क्षायिक एवं औपशमिक। कर्मसिद्धान्त के अनुसार इन तीनों ही प्रकार के सम्यक्त्व में तीर्थंकर प्रकृति का बंध सम्भव है। गोम्मटसार 'कर्मकाण्ड' में कहा गया है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व, द्वितीयोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व की अवस्था में अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर चार गुणस्थानों तक के मनुष्य तीर्थंकर
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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