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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन जैन धर्म-दर्शन की एक प्रमुख विशेषता है - संलेखना - संथारापूर्वक समाधिमरण। मृत्यु का समतापूर्वक स्वागत करना एक उच्च कोटि की साधना है । इसमें होने वाले मरण को पण्डित मरण भी कहा गया है। इस मरण के पूर्व क्रोधादि कषायों तथा शरीर को कृश किया जाता है, फिर एक बिछौना (संस्तारक) अंगीकार कर आहार का पूरी तरह त्याग करते हुए सबसे क्षमायाचना की जाती है तथा आत्मशुद्धि में सहायक भावनाओं का आलम्बन लिया जाता है। समाधिमरण एक प्रकार से मरण की उत्कृष्ट कला एवं साधना है, यह आत्महत्या नहीं है, क्योंकि इसमें बिना किसी आवेश के सहजतापूर्वक समताभाव की साधना की जाती है। xiv उसका नियमित रूप से आत्मशुद्धि के लिए जैन परम्परा में अनेक उपाय निर्दिष्ट हैं, जिनमें एक उपाय प्रतिक्रमण है। साधक के द्वारा प्रतिदिन क्या दोष हुआ है, प्रातःकाल एवं सायंकाल परिमार्जन करने हेतु वह प्रतिक्रमण करता है। इससे साधना में सजगता रहती है । आचारांगसूत्र में साधना में सजगता किं वा अप्रमत्तता पर विशेष बल दिया गया है। आत्मस्वरूप की विस्मृति प्रमाद है । अज्ञानी व्यक्ति तो आत्मस्वरूप की विस्मृति में ही जीता है, किन्तु ज्ञानी भी प्रमाद के वशीभूत होकर दोषों का शिकार हो जाता है। जो प्रमाद में जीता है, वह भयभीत होता है तथा जो अप्रमत्त होकर जीता है, वह निर्भय होता है । दुःखमुक्ति की साधना में अप्रमत्त होना अनिवार्य है। तीर्थंकरों ने जनसाधारण को लाभान्वित करने के लिए लोक भाषा प्राकृत में जो उपदेश दिया, उसे गणधरों एवं आचार्यों ने आगमों के रूप में प्रस्तुत किया। इन आगमों में आध्यात्मिक, दार्शनिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है, जो मानवसमुदाय एवं इतिहासविदों के लिए आज भी उपयोगी है। आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन आदि आगमों में अनेक जिज्ञासाओं के समाधान प्राप्त होते हैं। एक महत्त्वपूर्ण आगम है'इसिभासियाई' । इस आगम में याज्ञवल्क्य, असित देवल, अंगर्षि आदि सतरह वैदिक ऋषियों, महाकश्यप मातंग, साचिपुत्र आदि पाँच बौद्ध ऋषियों एवं ऋषिपुष्पशाल, तेतलिपुत्र, पार्श्व, वर्द्धमान आदि बारह निर्ग्रन्थ ऋषियों सहित 45 ऋषियों के वचन बड़े आदर के साथ संगृहीत हैं, जिनमें अधिकतर ऋषियों को अर्हत् कहा गया है। इसमें जैन परम्परा की व्यापक दृष्टि एवं उदारता का परिचय
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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