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________________ 132 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन दीपक से लेकर आकाश तक सभी वस्तुएँ समान स्वभाववाली हैं। कोई भी वस्तु स्याद्वाद सिद्धान्त (अनेकान्तवाद) का उल्लंघन नहीं करती। उस वस्तु को कतिपय दार्शनिक मात्र नित्य अथवा मात्र अनित्य कहते हैं, जो उचित नहीं है। दीपक की लौ अनित्य है यह तो सर्वविदित है, किन्तु दीपक में प्रकाश के पुद्गल दीपक बुझने पर अन्धकार में परिणत हो जाते हैं, जो पुद्गल की अपेक्षा से नित्य कहलाते हैं। इसी प्रकार आकाश को सब नित्य मानते हैं, किन्तु आकाश में जिन द्रव्यों का अवगाहन होता है उनके स्थान परिवर्तन से आकाश की भी पर्याय बदल जाती है। इस दृष्टि से आकाश अनित्य भी सिद्ध होता है। दीपक से लेकर आकाश तक पदार्थों को नित्यानित्य कहने से संसार का कोई पदार्थ नहीं छूटा है,सबमें नित्यानित्यता सिद्ध हो जाती है। मल्लिषेणसूरि (13वीं शती) ने वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा है"वसन्ति गुणपर्याया अस्मिन्निति वस्तु धर्माधर्माकाशपुद्गल- कालजीवलक्षणं दव्यषट्कम्।'"" जिसमें गुण एवं पर्याय रहते हैं वह वस्तु है। जैनदर्शन में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, काल एवं जीवास्तिकाय-इन छह द्रव्यों को वस्तु कहा गया है। इन छहों द्रव्यों में अपने-अपने गुण सहभावी रूप से रहते हैं तथा पर्याय क्रमभावी रूप से उत्पन्न एवं नष्ट होती रहती हैं । इस दृष्टि से सभी द्रव्य नित्यानित्यात्मक हैं, द्रव्यपर्यायात्मक हैं, सामान्य-विशेषात्मक हैं । द्रव्य में अभेद एवं पर्यायों में भेद होने से उसे भेदाभेदात्मक भी कहते हैं। द्रव्य वाच्य है, किन्तु उसकी प्रतिक्षण बदलने वाली पर्याय के लिए पृथक् पृथक् शब्दों का अभाव होने से उसको अवाच्य कहने से वस्तु को वाच्यावाच्यात्मक भी कह सकते हैं। अनेकान्तवाद की सिद्धि में प्रमुख तर्क जैन आचार्यों के द्वारा अनेकान्तवाद के स्थापन एवं एकान्तवाद के खण्डन में प्रस्तुत कतिपय तर्क इस प्रकार हैंप्रथम तर्क- अनेकान्तात्मक वस्तु में ही अर्थक्रियाकारित्व सम्भव है, एकान्त नित्य एवं एकान्त क्षणिक वस्तु में अर्थक्रिया घटित नहीं होती। उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक या
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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