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________________ 130 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन मान्यता रूढ़ है कि जैन दर्शन ही अनेकान्तवादी है, अतएव जैसे जैनेतर दार्शनिक अपने दर्शनों में लभ्य अनेकान्त विचार की ओर दृष्टि दिए बिना ही अनेकान्त को मात्र जैनवाद समझकर उसका खण्डन करते हैं वैसे ही जैनाचार्य भी उस वाद को सिर्फ अपना ही मानकर उस खण्डन का पूरे जोर से जवाब देते हुए अनेकान्त का विविध रूप से स्थापन करते आए हैं, जिसके फलस्वरूप जैन साहित्य में नय, सप्तभंगी, निक्षेप, अनेकान्त आदि की समर्थक एक बड़ी स्वतन्त्र ग्रन्थराशि बन गई है।" ऐसा प्रतीत होता है कि जब एकान्तवाद का प्राबल्य हुआ तब जैन दार्शनिकों द्वारा तीर्थंकर महावीर के उपदेशों को आधार बनाकर अनेकान्तवाद की तार्किक रूप से प्रतिष्ठा की गई। अनेकान्तात्मकता को वस्तु की व्याख्या का आधार बनाने के कारण जैन दर्शन का यह प्रमुख सिद्धान्त बना तथा अन्य दर्शन अपने यहाँ किसी रूप में अनन्त धर्मात्मकता स्वीकृत होने पर भी जैनों का खण्डन करने लगे। धर्मकीर्ति", शंकराचार्य', शान्तरक्षित', अर्चट", आदि इसके उदाहरण हैं । उन्होंने अपनी कृतियों में अनेकान्तवाद का निरसन करने का प्रयास किया है, जिसका उत्तर अकंलक, विद्यानन्द आदि जैनाचार्यों ने अपनी कृतियों में दिया है। अनेकान्तवाद की स्थापना का आधार जैन दार्शनिकों ने अनेकान्तवाद की स्थापना का आधार मूलतः जैन आगमों को ही बनाया है। लोक शाश्वत है या अशाश्वत? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा-लोक स्यात् शाश्वत है, स्यात् अशाश्वत है। त्रिकाल में एक भी समय ऐसा नहीं मिल सकता जब लोक न हो, अतः लोक शाश्वत है। परन्तु लोक सदा एक सा नहीं रहता, कालक्रम से उसमें उन्नति, अवनति होती रहती है, अतः वह अनित्य और परिवर्तनशील होने के कारण अशाश्वत भी है। इसी प्रकार लोक सान्त है या अनन्त? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने परिव्राजक स्कन्धक से कहा-द्रव्य की अपेक्षा से लोक एक है और सान्त है, क्षेत्र की अपेक्षा से लोक असंख्यात कोटाकोटि योजन लम्बा-चौड़ा और असंख्यात कोटाकोटि योजन परिधि वाला है, अतः सान्त है। काल की दृष्टि से ऐसा कोई काल नहीं जब लोक न हो, अतः लोक अनन्त है। भाव से यह लोक अनन्त वर्ण-पर्याय वाला, अनन्त गन्धपर्याय वाला, अनन्त रस पर्यायवाला, अनन्त संस्थान पर्याय युक्त, अनन्त
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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