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________________ कारण-कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण-समवाय 115 है। मोहनीय कर्म जीव की अन्तःदृष्टि को मलिन बनाता है तथा उसके आचरण को क्रोध, मान, माया एवं लोभ से युक्त करता है। आयुष्यकर्म एक भव की जीवनावधि का निर्धारक है। नामकर्म से गति, जाति, शरीरादि की प्राप्ति होती है। गोत्रकर्म जीव के उच्च एवं नीच संस्कारों का द्योतक है । अन्तराय कर्म विघ्नरूप होता है, जो जीव के दान, लाभ, भोग, उपभोग एवं वीर्य गुण को बाधित करता है। जैनदर्शन में कर्म की बन्धन, सत्ता, उदय, उदीरणा, उद्वर्तना, अपवर्तना, संक्रमण, उपशमन, निधत्ति एवं निकाचना अवस्थाओं का निरूपण हुआ है। जैनदर्शन में कर्म को पौद्गलिक किंवा मूर्त माना गया है, क्योंकि वह आत्मा से भिन्न है तथा उस मूर्तकर्म से मूर्त शरीरादि की प्राप्ति होती है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप की साधना द्वारा जीव से मूर्तकर्म का सम्बन्ध विच्छेद होने पर मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। मुक्त होने पर भी जीव में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अव्याबाध सुख, क्षायिक सम्यक्त्व आदि गुण रहते हैं तथा उस जीव अथवा आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहता है। प्रश्न यह है कि जैन दर्शन कर्म-सिद्धान्त का सूक्ष्म विवेचन करके भी कार्य की सिद्धि में उसकी एकान्त कारणता को अंगीकार क्यों नहीं करता? इसका एक कारण यह प्रतीत होता है कि जैन दर्शन व्यापकदृष्टि को लिए हुए है, अतः वह पुरुषार्थ को भी उतना ही महत्त्व देता है, जितना पूर्वकृत कर्म को । बल्कि नूतन कर्मों की रचना वर्तमान पुरुषार्थ से ही होती है। पुरुषार्थ के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति एवं फलदानशक्ति में परिवर्तन को भी जैनदर्शन अंगीकार करता है। पुरुषार्थ के साथ वह काल, स्वभावादि को भी महत्त्व देता है। __ पूर्वकृतकर्मवाद जैनदर्शन की प्रमुख विशेषता है, फिर भी जैनदार्शनिक पूर्वकृतकर्मवाद को ही एक मात्र कारण मानने का निरसन करते हैं तथा काल, स्वभाव, पुरुषार्थ आदि की कारणता को भी महत्त्व देते हैं। पुरुषवाद एवं पुरुषकार(पुरुषार्थ ): जैनदर्शन में इनका स्थान पंच कारणसमवाय में जैनदार्शनिक पंचम कारण के रूप में पुरुषार्थ/पुरुषक्रिया को महत्त्व देते हैं । वस्तुतः पुरुषार्थ/पुरुषक्रिया श्रमण परम्परा का प्रमुख वैशिष्ट्य है, जिसका जैनदर्शन में भी अप्रतिम स्थान है। जैनदर्शन पुरुषार्थवादी दर्शन है,
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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