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________________ प्राक्कथन है। शेष तीन ज्ञान सब जीवों को नहीं होते। अवधिज्ञान नारकों और देवों को जन्म से तथा तिर्यंच एवं मनुष्य को विशेष क्षयोपशम से प्राप्त होता है। इसके अन्तर्गत वर्ण-गंध-रस-स्पर्श से युक्त पदार्थों का इन्द्रिय एवं मन की सहायता के बिना सीधे आत्मा से ज्ञान होता है। मनः पर्यायज्ञान के द्वारा दूसरे के मन की पर्यायों को जाना जाता है तथा केवलज्ञान वह ज्ञान है जिससे समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायों का साक्षात्कार किया जाता है। यह शुद्ध ज्ञान मोहकर्म के साथ ज्ञानावरणादि कर्मो का क्षय होने पर प्रकट होता है। यह पूर्ण, अनन्त एवं अक्षय ज्ञान है, जिसके पश्चात् कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। संसार में रहते हुए भी केवली मुक्त ही होता है तथा शरीर छूटने के साथ वह सिद्ध हो जाता है। मुक्ति का प्रारम्भ तब ही हो जाता है जब किसी व्यक्ति को सम्यग्दर्शन की उपलब्धि होती है। सम्यग्दर्शन से ही जीव को सही दिशा मिलती है। अपने एवं परपदार्थो के स्वरूप में भेद ज्ञान की प्रतीति होने पर सम्यग्दर्शन की अभिव्यक्ति होती है। यह मोह कर्म के न्यून होने पर ही सम्भव है। प्रगाढ़ मोहयुक्त जीव सही एवं गलत का भेद करने में समर्थ नहीं होता, उसे अपने गुण-दोषों को जानने की क्षमता प्राप्त नहीं होती। क्षायिक सम्यग्दर्शन होने पर मोह-कर्म का पूर्ण क्षय निश्चित है। सम्यग्दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यक् होता है तथा ज्ञान सम्यक् होने पर ही आचरण सम्यक् होता है। इन तीनों के होने पर ही मोक्ष-मार्ग प्रशस्त होता है। ज्ञान को ही जैन परम्परा में प्रमाण के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। प्रमाण का प्रयोग जीवन- व्यवहार के लिए हुआ है, अतः इसमें सम्यग्दर्शन की शर्त नहीं है। सम्यग्दृष्टि का ज्ञान तो प्रमाण होता ही है, किन्तु मिथ्यात्वी का ज्ञान भी जीवनव्यवहार की दृष्टि से संशय-विपर्यय-अनध्यवसाय से रहित होने पर प्रमाण स्वीकार किया गया है। उमास्वाति ने प्रमाण के दो भेद किए हैं- प्रत्यक्ष एवं परोक्ष। उन्होंने सीधे आत्मा से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष की कोटि में तथा इन्द्रियादि की सहायता से होने वाले ज्ञान को परोक्ष की कोटि में रखा। तदनुसार मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण के अन्तर्गत तथा अवधि, मनःपर्याय एवं केवलज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण के अन्तर्गत विभक्त होते हैं। आगे चलकर जिनभद्रगणि ने इन्द्रिय एवं मन से होने वाले ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया, जिसे भट्ट अकलङ्क आदि दार्शनिकों ने अपनाया। भट्ट अकलङ्क ने प्रत्यक्ष के मुख्य एवं
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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