SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 106 - जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन जैन आगम प्रश्नव्याकरण सूत्र, नन्दीसूत्र की अवचूरि, हरिभद्रसूरि रचित लोकतत्त्वनिर्णय एवं शास्त्रवार्तासमुच्चय, शीलांकाचार्यकृत आचारांग एवं सूत्रकृतांग की टीका प्रभृति ग्रन्थों में स्वभाववाद की चर्चा उपलब्ध होती है। इनके अतिरिक्त मल्लवादी क्षमाश्रमण के द्वादशारनयचक्र, जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के विशेषावश्यकभाष्य, हरिभद्रसूरि रचित धर्मसंग्रहणि, अभयदेवसूरि कृत तत्त्वबोधविधायनी टीका में स्वभाववाद का उपस्थापन एवं निरसन प्राप्त होता है। जैन ग्रन्थों में प्रतिपादित स्वभाववाद एवं उसके निरसन से स्वभाववाद के सम्बन्ध में विभिन्न तथ्य प्रकट हुए हैं। जैनाचार्यों द्वारा निरूपित स्वभाववाद की कतिपय विशेषताएँ यहाँ दी जा रही हैं 1. प्रश्नव्याकरणसूत्र के टीकाकार ज्ञानविमलसूरि ने स्वभाववाद का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा है कि सूंठ में तिक्तता और हरितकी में विरेचनशीलता का गुण स्वभाव से ही होता है।" नन्दीसूत्र की अवचूरि में कहा गया है कि स्वभाववाद के अनुसार सभी पदार्थ स्वभाव से उत्पन्न होते हैं, क्योंकि मिट्टी से कुम्भ उत्पन्न होता है, पटादि नहीं। 2. शास्त्रवार्तासमुच्चय में कहा गया है कि प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभावानुसार ही कार्य को उत्पन्न करता है। यदि सभी वस्तुओं की उत्पत्ति में मिट्टी आदि की समान कारणता मानी जाए तो कारण-कार्य की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। हरिभद्रसूरि स्वभाववाद का पक्ष रखते हुए कहते हैं- पूर्व-पूर्व उपादान परिणाम उत्तरोत्तर होने वाले तत्तत् उपादेय परिणामों के प्रति कारण हैं। उदाहरण के लिए बीज का चरम क्षणात्मक परिणाम अंकुर के प्रथम क्षणात्मक परिणाम का कारण होता है। इस प्रकार क्रमवत् कार्यजनकत्व भी स्वभाव है। ___ 3. मल्लवादी क्षमाश्रमण द्वादशारनयचक्र में स्वभाववाद को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि भूमि, जल आदि द्रव्यों की अपेक्षा रखकर कण्टकादि की उत्पत्ति होती है, यह भी स्वभाव ही है। भूमि आदि निमित्तों की निमित्तता भी स्वाभाविक है। इसका तात्पर्य यह भी है कि स्वभाववाद में उपादान एवं निमित्त दोनों का समावेश हो जाता है। शीलांकाचार्य ने तज्जीवतच्छरीरवादी के मत में स्वभाव से ही जगत् की विचित्रता को उपपन्न बताया है। कार्य की उत्पत्ति में स्वभाव से भिन्न द्रव्यों की
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy