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________________ 100 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन के स्वतन्त्र ग्रन्थ प्राप्त नहीं होते, किन्तु वेद, रामायण, महाभारत आदि विभिन्न ग्रन्थों में इनके सम्बन्ध में सामग्री प्राप्त होती है। यहाँ कालवाद, स्वभाववाद आदि पंचकारण समवाय पर संक्षेप में प्रकाश डाला जा रहा है। कालवाद एवं जैनदर्शन में काल की कथंचित् कारणता कालवाद से आशय है ऐसी विचारधारा जो काल को ही कारण मानकर समस्त कार्य उसी से निष्पन्न होना स्वीकार करती है। इस विचारधारा का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं मिलता, किन्तु भारतीय परम्परा में इसकी गहरी जड़े रही हैं। अथर्ववेद, नारायणोपनिषद्, शिवपुराण, भगवद्गीता आदि ग्रन्थों में तो काल को परमतत्त्व, परमात्मा, परब्रह्म, ईश्वर आदि स्वरूपों में प्रतिष्ठित किया गया है। अथर्ववेद के 11 वें काण्ड के 53-54 वें सूक्तों को कालसूक्त के नाम से जाना जाता है। इनमें कहा गया है कि काल ने प्रजा को उत्पन्न किया, काल ने प्रजापति को उत्पन्न किया, स्वयम्भू कश्यप काल से उत्पन्न हुए हैं तथा तप भी काल से उत्पन्न हुआ। काल सभी का ईश्वर और प्रजापति का पिता है। नारायणोपनिषद् में काल को नारायण कहा गया है। अक्ष्युपनिषद् में काल को समस्त पदार्थों का निरन्तर निर्माता कहा गया है"कालश्च कलनोद्युक्तः सर्वभावानारतम्"। माण्डूक्योपनिषद् पर रचित गौडपादकारिका (1.8) में कालवाद का स्पष्ट उल्लेख हुआ है- "कालात्प्रसूतिं भूतानांमन्यन्तेकालचिन्तकाः" शिवपुराण भी कहता है कि काल से ही सब उत्पन्न होता है तथा काल से ही वह विनाश को प्राप्त होता है। काल से निरपेक्ष कहीं कुछ नहीं है। विष्णुपुराण में उल्लेख है कि कालस्वरूप भगवान् अनादि हैं और इनका अन्त भी नहीं होता। श्रीमद्भागवत में निरूपित है कि पुरुषविशेष ईश्वर काल को उपादान कारण बनाकर अपने आप से विश्वरूप सृष्टि की रचना करता है। महाभारत को विश्वकोष कहा जाता है, अतः कालवाद के भी संकेत इसमें प्राप्त होते हैं। महाभारत में निगदित है कि स्थावर-जंगम प्राणी सभी काल के अधीन हैं। सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, इन्द्र, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, मित्र, पर्जन्य, वसु, अदिति, नदी, समुद्र आदि सभी का कर्ता काल है। सृष्टिगत कार्यों के साथ-साथ काल स्वयं सृष्टि का रचनाकार और संहारकर्ता है। श्रीमद्भगवद्गीता (11.32) में श्रीकृष्ण ने स्वयं को काल कहा है। वे अर्जुन से कहते हैं- "कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो, लोकान् समाहर्तुमिह
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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