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________________ 82 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन प्राणातिपात, मृषावाद आदि अठारह पापों को भी पौद्गलिक कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र में शरीर, वाणी, मन, प्राण, अपान आदि को जीव के प्रति पुद्गल का उपकार कहा गया है। शरीर तो पुद्गलों से निर्मित है ही, वाणी मन, प्राण एवं अपान भी पौद्गलिक है। पुद्गलों के कारण जीव को ऐन्द्रियक सुख एवं दुःख की प्राप्ति होती है, प्राणादि के संयोग से जीवन की तथा इनके वियोग से मरण की प्राप्ति होती है।' जैनदर्शन में प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन एवं परिग्रह को भी पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस एवं चार स्पर्श से युक्त स्वीकार किया गया है। क्रोध,मान,माया, लोभ, राग, द्वेष, यावत् मिथ्यादर्शन आदि पापों में भी पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस एवं चार स्पर्श स्वीकार किए गए हैं। किन्तु प्राणातिपात विरति यावत् मिथ्यादर्शनशल्य विरति को वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श से रहित अंगीकार किया गया है। ज्ञानावरणादि आठ कर्म भी वर्णादि से युक्त होने के कारण पुद्गल हैं। जीव को जो पर-भाव में ले जाते हैं, वे सब आगम में पौद्गलिक द्रव्य माने गए हैं। राग-द्वेषादि स्वभाव नहीं, पर भाव स्वरूप हैं अतः ये भी पौद्गलिक हैं। आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में इसी प्रकार का निरूपण करते हैं ।द्रव्य लेश्या भी वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श से युक्त होने से पौद्गलिक है", जबकि भाव लेश्या इनसे रहित होने से पुद्गल नहीं है। औदारिक, वैक्रिय, आहारक एवं तैजस शरीर पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस एवं आठ स्पर्शयुक्त हैं, जबकि कार्मण शरीर चतुःस्पर्शी है। मनोयोग एवं वचनयोग चतुःस्पर्शी हैं तथा काययोग अष्टस्पर्शी होता है। वैशेषिक मत से भिन्नता वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त आदि दर्शनों में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश को पंचभूत कहा गया है। जैनदर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायु जब सजीव होते हैं तो इनकी गणना एकेन्द्रिय जीव में होती है, किन्तु इनके शरीर तो पौद्गलिक ही होते हैं, अतः निर्जीव होने पर इनकी गणना पुद्गल द्रव्य में होती है। जैन दर्शन में पंचभूतों या महाभूतों की अवधारणा नहीं है। वैशेषिक दर्शन में वायु में स्पर्श गुण, जल में स्पर्श एवं रस गुण, अग्नि में स्पर्श, रस एवं रूप गुण तथा पृथ्वी में इनके साथ गन्ध गुण स्वीकार किया गया है, किन्तु जैनदर्शन में सभी पुद्गल द्रव्यों में ये चारों गुण एक
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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