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________________ ७७ सप्तमोऽध्यायः (१४) अगार्यनगारश्च । पूर्वोक्त प्रती अगारी (गृहस्थ) और भणगारी ( साधु ) इन दो भेदों से होता है। (१५) अणुव्रतोऽगारी। अणुव्रत वाला अगारो व्रती कहलाता है। (१६) दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपोषधोपवासोप भोगपरिभोगातिथिस विभागवतसंपन्नश्च । दिक परिमाण व्रत, देशाऽत्रकाशिक व्रत, अनर्थदण्डविरमण व्रत, सामायिक व्रत, पौषधोपवास व्रत, उपभोग परिभोग-परिम ण व्रत, और अतिथिसंधिभाग व्रत इन व्रतों से भी युक्त हो वह अगारी व्रती कहलाता है। यानी पांच अणुव्रत और ये सात (शील) मिलकर बारा व्रत गृहस्थ के होते हैं। दश दिशाओं में जाने आने का परिमाण (हदबन्दी ) करनी घह दिग व्रत, खुद को आवरण करने वाले घर, क्षेत्र, ग्राम वगेरा में गमनागमन का यथाशक्ति अभिग्रह वह देश व्रत, भोगोपभोग से व्यतिरिक्त पदार्थों के लिये दंड (कर्मबंध ) वह अनर्थ दंड, उसकी विरति वह अनर्थ दंड विरमण व्रत, नियत काल तक सावद्य (पाप ) योग का त्याग वह सामायिक व्रत, पर्व के दिन उपवास कर पौषध करना वह पोषधोपवास व्रत । बहुत सावध उपभोग परिभोग योग्य वस्तु का परिमाण (नियमन) वह उपभोग-परिभोग व्रत । खान पानादि एक वक्त भोगे जावें वह उपभोग और वस्त्र भलंकारादि बारंबार भोगे जावे वह परिभोग। भ्यायोपार्जित द्रव्यों से तैयार किया हुवा कल्पनीय आहारादि पदार्थ देश, काल, सस्कार और श्रद्धा योग से अत्यन्त अनुग्रह वृद्धि से संयमी पुरुष को देना वह अतिथि संविभागवत है।
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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